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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

तत्पश्चात् शिवजी को पुष्पांजलि समर्पित करके विधिपूर्वक दान दे। फिर शिवजी को नमस्कार करके व्रत सम्बन्धी नियम का विसर्जन कर दे। अपनी शक्ति के अनुसार शिवभक्त ब्राह्मणों, विशेषत: संन्यासियों को भोजन कराकर पूर्णतया संतुष्ट करके स्वयं भी भोजन करे।

हरे! शिवरात्रि को प्रत्येक प्रहर में श्रेष्ठ शिवभक्तों को जिस प्रकार विशेष पूजा करनी चाहिये, उसे मैं बताता हूँ; सुनो!

प्रथम प्रहर में पार्थिव लिंग की स्थापना करके अनेक सुन्दर उपचारों द्वारा उत्तम भक्तिभाव से पूजा करे। पहले गन्ध, पुष्प आदि पाँच द्रव्यों द्वारा सदा महादेवजी की पूजा करनी चाहिये। उस-उस द्रव्य से सम्बन्ध रखनेवाले मन्त्र का उच्चारण करके पृथक्-पृथक् वह द्रव्य समर्पित करे। इस प्रकार द्रव्य समर्पण के पश्चात् भगवान् शिव को जलधारा अर्पित करे। विद्वान् पुरुष चढ़े हुए द्रव्यों को जलधारा से ही उतारे। जलधारा के साथ-साथ एक सौ आठ मन्त्र का जप करके वहाँ निर्गुण-सगुण रूप शिव का पूजन करे। गुरु से प्राप्त हुए मन्त्रद्वारा भगवान् शिव की पूजा करे। अन्यथा नाममन्त्र द्वारा सदाशिव का पूजन करना चाहिये। विचित्र चन्दन, अखण्ड चावल और काले तिलों से परमात्मा शिव की पूजा करनी चाहिये। कमल और कनेर के फूल चढ़ाने चाहिये। आठ नाम-मन्त्रों द्वारा शंकरजी को पुष्प समर्पित करे। वे आठ नाम इस प्रकार हैं- भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महान्, भीम और ईशान। इनके आरम्भमें श्री और अन्त में चतुर्थी विभक्ति जोड़कर 'श्रीभवाय नमः' इत्यादि नाम मन्त्रों द्वारा शिव का पूजन करे। पुष्प-समर्पण के पश्चात् धूप, दीप और नैवेद्य निवेदन करे। पहले प्रहर में विद्वान् पुरुष नैवेद्य के लिये पकवान बनवा ले। फिर श्रीफलयुक्त विशेषार्ध्य देकर ताम्बूल समर्पित करे। तदनन्तर नमस्कार और ध्यान करके गुरु के दिये हुए मन्त्र का जप करे।

गुरुदत्त मन्त्र न हो तो पंचाक्षर (नमः शिवाय) मन्त्र के जप से भगवान् शंकर को संतुष्ट करे, धेनुमुद्रा दिखाकर उत्तम जल से तर्पण करे। पश्चात् अपनी शक्ति के अनुसार पाँच ब्राह्मणों को भोजन कराने का संकल्प करे। फिर जब तक पहला प्रहर पूरा न हो जाय, तब तक महान् उत्सव करता रहे।

धेनुमुद्रा का लक्षण इस प्रकार है-
वामाङ्गुलीनां मध्येषु दक्षिणाङ्गुलिकास्तथा।
संयोज्य तर्जनीं दक्षां मध्यमानामयोस्तथा।।
दक्षमध्यमयोर्वामां तर्जनीं च नियोजयेत्।
वामयानामया दक्षकनिष्ठां च नियोजयेत्।।
दक्षयानामया वामां कनिष्ठां च नियोजयेत्।
विहिताधोमुखी चैषा धेनुमुद्रा प्रकीर्तिता।।

'बायें हाथ की अँगुलियों के बीच में दाहिने हाथ की अँगुलियों को संयुक्त करके दाहिनी तर्जनीको मध्यमा में लगाये। दाहिने हाथ की मध्यमा में बायें हाथ की तर्जनी को मिलावे। फिर बायें हाथ की अनामिका से दाहिने हाथ की कनिष्ठिका और दाहिने हाथ की अनामिका के साथ बायें हाथ की कनिष्ठिका को संयुक्त करे। फिर इन सबका मुख नीचे की ओर करे। यही धेनुमुद्रा कही गयी है।'

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