ई-पुस्तकें >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
अनुत्तमो दुराधर्षो मधुरप्रियदर्शन:।
सुरेश: शरणं सर्व: शब्दब्रह्म सतां गति:।।१२६।।
९५३ अनुत्तमो दुराधर्ष: - सर्वोत्तम एवं दुर्जय, ९५४ मधुरप्रियदर्शन: - जिनका दर्शन मनोहर एवं प्रिय लगता है ऐसे, ९५५ सुरेश: - देवताओं के ईश्वर, ९५६ शरणम् - आश्रयदाता, ९५७ सर्व: - सर्वस्वरूप, ९५८ शब्दब्रह्म सतां गति: - प्रणवरूप तथा सत्पुरुषों के आश्रय।।१२६।।
कालपक्ष: कालकाल: कङ्कणीकृतवासुकि:।
महेष्वासो महीभर्ता निष्कलङ्को विश्रृङ्खल:।।१२७।।
९५९ कालपक्ष: - काल जिनका सहायक है, ऐसे, ९६० कालकाल: - काल के भी काल, ९६१ कङ्कणीकृतवासुकि: - वासुकि नाग को अपने हाथ में कंगन के समान धारण करनेवाले, ९६२ महेष्वास: - महाधनुर्धर, ९६३ महीभर्ता - पृथ्वीपालक, ९६४ निष्कलङ्कः - कलंकशून्य, ९६५ विश्रृङ्खल: - बन्धनरहित।।१२७।।
द्युमणिस्तरणिर्धन्य: सिद्धिदः सिद्धिसाधन:।
विश्वत: संवृत: स्तुत्यो व्यूढोरस्को महाभुज:।।१२८।।
९६६ द्युमणिस्तरणि: - आकाश में मणि के समान प्रकाशमान तथा भक्तों को भवसागर से तारने के लिये नौकारूप सूर्य, ९६७ धन्य: - कृतकृत्य, ९६८ सिद्धिद: सिद्धिसाधन: - सिद्धिदाता और सिद्धि के साधक, ९६९ विश्वत: संवृत: - सब ओर से मायाद्वारा आवृत, ९७० स्तुत्य: - स्तुति के योग्य, ९७१ व्यूढोरस्क: - चौड़ी छातीवाले, ९७२ महाभुज: - बड़ी बाँहवाले।।१२८।।
सर्वयोनिर्निरातङ्को नरनारायणप्रिय:।
निर्लेपो निष्प्रपञ्चात्मा निर्व्यङ्गो व्यङ्गनाशन:।।१२९।।
९७३ सर्वयोनि: - सबकी उत्पत्ति के स्थान, ९७४ निरातङ्कः - निर्भय, ९७५ नरनारायणप्रिय: - नर-नारायण के प्रेमी अथवा प्रियतम, ९७६ निर्लेपो निष्प्रपञ्चात्मा - दोषसम्पर्क से रहित तथा जगत्यप्रपँच से अतीत स्वरूपवाले, ९७७ निर्व्यङ्ग: - विशिष्ट अंगवाले प्राणियों के प्राकट्य में हेतु, ९७८ व्यङ्गनाशन: - यज्ञादि कर्मोंमें होनेवाले अंग-वैगुण्य का नाश करनेवाले।।१२९।।
स्तव्य: स्तवप्रिय: स्तोता व्यासमूर्तिर्निरङ्कुश:।
निरवद्यमयोपायो विद्याराशी रसप्रिय:।।१३०।।
९७९ स्तव्य: - स्तुति के योग्य, ९८० स्तवप्रिय: - स्तुति के प्रेमी, ९८१ स्तोता - स्तुति करनेवाले, ९८२ व्यासमूर्ति: - व्यासस्वरूप, ९८३ निरङ्कुश: - अंकुशरहित स्वतन्त्र, ९८४ निरवद्यमयोपाय: - मोक्ष-प्राप्ति के निर्दोष उपायरूप, ९८५ विद्याराशि: - विद्याओं के सागर, ९८६ रसप्रिय: - ब्रह्मानन्दरस के प्रेमी ।।१३०।।
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