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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


अद्रिरद्र्यालय: कान्त: परमात्मा जगद्‌गुरु:।
सर्वकर्मालयस्तुष्टो मङ्गल्यो मङ्गलावृत:।।३६।।

२८५ अद्रि: - कैलास आदि पर्वत स्वरूप, २८६ अद्र्यालय: - कैलास और मन्दर आदि पर्वतों पर निवास करनेवाले, २८७ कान्त: - सबके प्रियतम, २८८ परमात्मा - परब्रह्म परमेश्वर, २८९ जगद्‌गुरु: - समस्त संसार के गुरु, २९० सर्वकर्मालय: - सम्पूर्ण कर्मों के आश्रयस्थान, २९१ तुष्ट: - सदा प्रसन्न, २९२ मङ्गल्य: - मंगलकारी, २९३ मङ्गलावृत: - मंगलकारिणी शक्ति से संयुक्त।।३६।।

महातपा दीर्घतपा: स्थविष्ठ: स्थविरो ध्रुव:।
अहःसंवत्सरो व्याप्ति: प्रमाणं परमं तप:।।३७।।

२९४ महातपा: - महान् तपस्वी, २१५ दीर्घतपा: - दीर्घकाल तक तप करनेवाले, २९६ स्थविष्ठ: - अत्यन्त स्थूल, २९७ स्थविरो ध्रुव: - अति प्राचीन एवं अत्यन्त स्थिर, २१८ अह:संवत्सर: - दिन एवं संवत्सर आदि कालरूप से स्थित, अंशकालस्वरूप, २९९ व्याप्ति: - व्यापकता स्वरूप, ३०० प्रमाणम् - प्रत्यक्षादि प्रमाणस्वरूप, ३०१ परमं तप: - उत्कृष्ट तपस्या-स्वरूप।।३७।।

संवत्सरकरो मन्त्रप्रत्यय: सर्वदर्शन:।
अज: सर्वेश्वर: सिद्धो महारेता महाबल:।।३८।।

३०२ संवत्सरकर: - संवत्सर आदि कालविभाग के उत्पादक, ३०३ मन्त्र-प्रत्यय: - वेद आदि मन्त्रों से प्रतीत (प्रत्यक्ष) होने योग्य, ३०४ सर्वदर्शन: - सबके साक्षी, ३०५ अज: - अजन्मा, ३०६ सर्वेश्वर: - सबके शासक, ३०७ सिद्ध: - सिद्धियों के आश्रय, ३०८ महारेता: - श्रेष्ठ वीर्यवाले, ३०९ महाबल: - प्रमथगणों की महती सेना से सम्पन्न।।३८।।

योगी योग्यो महातेजा: सिद्धि: सर्वादिरग्रह:।
वसुर्वसुमना: सत्य: सर्वपापहरो हर:।। ३९।।

३१० योगी योग्य: - सुयोग्य योगी, ३११ महातेजा: - महान् तेज से सम्पन्न, ३१२ सिद्धि: - समस्त साधनों के फल, ३१३ सर्वादि: - सब भूतों के आदिकारण, ३१४ अग्रह: - इन्द्रियों की ग्रहणशक्ति के अविषय, ३१५ वसु: - सब भूतों के वासस्थान, ३१६ वसुमना: - उदार मनवाले, ३१७ सत्य: - सत्यस्वरूप, ३१८ सर्वपापहरो हर: - समस्त पापों का अपहरण करने के कारण हर नाम से प्रसिद्ध।।३९।।

सुकीर्तिशोभन: श्रीमान् वेदाङ्गो वेदविन्मुनि:।
भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता लोकनाथो दुराधर:।।४०।।

३१९ सुकीर्तिशोभन: - उत्तम कीर्ति से सुशोभित होनेवाले, ३२० श्रीमान् - विभूतिस्वरूपा उमा से सम्पन्न, ३२१ वेदाङ्गः - वेदरूप अंगों वाले, ३२२ वेदविन्मुनि: - वेदों का विचार करनेवाले मननशील मुनि, ३२३ भ्राजिष्णु: - एक रस प्रकाशस्वरूप, ३२४ भोजनम् - ज्ञानियों द्वारा भोगने योग्य अमृत स्वरूप, ३२५ भोक्ता - पुरुषरूप से उपभोग करने वाले, ३२६ लोकनाथ: - भगवान् विश्वनाथ, ३२७ दुराधर: - अजितेन्द्रिय पुरुषों द्वारा जिनकी आराधना अत्यन्त कठिन है ऐसे।।४०।।

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