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शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय २२

विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग और उनकी महिमा के प्रसंग में पंचक्रोशी की महत्ता का प्रतिपादन

सूतजी कहते हैं- मुनिवरो! अब मैं काशी के विश्वेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग का माहात्म्य बताऊंगा, जो महापातकों का भी नाश करनेवाला है। तुमलोग सुनो, इस भूतल पर जो कोई भी वस्तु दृष्टिगोचर होती है वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निर्विकार एवं सनातन ब्रह्मरूप है। अपने कैवल्य (अद्वैत) भाव में ही रमनेवाले उन अद्वितीय परमात्मा में कभी एक से दो हो जाने की इच्छा जाग्रत् हुई।

स द्वितीयमैच्छत् (बृहदारण्यक उ०- १ । ४ । ३)

इस श्रुति से भी यही बात सिद्ध होती है।

फिर वे ही परमात्मा सगुणरूप में प्रकट हो शिव कहलाये। वे शिव ही पुरुष और स्त्री दो रूपों में प्रकट हो गये। उनमें जो पुरुष था, उसका 'शिव' नाम हुआ और जो स्त्री हुई, उसे 'शक्ति' कहते हैं। उन चिदानन्दस्वरूप शिव और शक्ति ने स्वयं अदृष्ट रहकर स्वभाव से ही दो चेतनों (प्रकृति और पुरुष) की सृष्टि की। मुनिवरो! उन दोनों माता-पिताओं को उस समय सामने न देखकर वे दोनों प्रकृति और पुरुष महान् संशय में पड़ गये। उस समय निर्गुण परमात्मा से आकाशवाणी प्रकट हुई-'तुम दोनों को तपस्या करनी चाहिये। फिर तुमसे परम उत्तम सृष्टि का विस्तार होगा।'

वे प्रकृति और पुरुष बोले- 'प्रभो! शिव! तपस्या के लिये तो कोई स्थान है ही नहीं। फिर हम दोनों इस समय कहाँ स्थित होकर आपकी आज्ञा के अनुसार तप करें।' तब निर्गुण शिव ने तेज के सारभूत पाँच कोस लंबे-चौड़े शुभ एवं सुन्दर नगर का निर्माण किया, जो उनका अपना ही स्वरूप था। वह सभी आवश्यक उपकरणों से युक्त था। उस नगर का निर्माण करके उन्होंने उसे उन दोनों के लिये भेजा। वह नगर आकाश में पुरुष के समीप आकर स्थित हो गया। तब पुरुष-श्रीहरि ने उस नगर में स्थित हो सृष्टि की कामना से शिव का ध्यान करते हुए बहुत वर्षोंतक तप किया। उस समय परिश्रम के कारण उनके शरीर से श्वेत जल की अनेक धाराएँ प्रकट हुईं, जिनसे सारा शून्य आकाश व्याप्त हो गया। वहाँ दूसरा कुछ भी दिखायी नहीं देता था। उसे देखकर भगवान् विष्णु मन-ही-मन बोल उठे-यह कैसी अद्धत वस्तु दिखायी देती है? उस समय इस आश्चर्य को देखकर उन्होंने अपना सिर हिलाया, जिससे उन प्रभु के सामने ही उनके एक कान से मणि गिर पड़ी। जहाँ वह मणि गिरी, वह स्थान मणिकर्णिका नामक महान् तीर्थ हो गया। जब पूर्वोक्त जलराशि में वह सारी पंचक्रोशी डूबने और बहने लगी, तब निर्गुण शिव ने शीघ्र ही उसे अपने त्रिशूल के द्वारा धारण कर लिया। फिर विष्णु अपनी पत्नी प्रकृति के साथ वहीं सोये। तब उनकी नाभि से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए। उनकी उत्पत्ति में भी शंकर का आदेश ही कारण था। तदनन्तर उन्होंने शिव की आज्ञा पाकर अद्धृत सृष्टि आरम्भ की। ब्रह्माजी ने ब्रह्माण्ड में चौदह भुवन बनाये। ब्रह्माण्ड का विस्तार महर्षियों ने पचास करोड़ योजन का बताया है। फिर भगवान् शिव ने यह सोचा कि ' ब्रह्माण्ड के भीतर कर्मपाश से बँधे हुए प्राणी मुझे कैसे प्राप्त कर सकेंगे?' यह सोचकर उन्होंने मुक्तिदायिनी पंचक्रोशी को इस जगत्‌ में छोड़ दिया।

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