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शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय १५-१६

मल्लिकार्जुन और महाकाल नामक ज्योतिर्लिंगों के आविर्भाव की कथा तथा उनकी महिमा

सूतजी कहते हैं- महर्षियो! अब मैं मल्लिकार्जुन के प्रादुर्भाव का प्रसंग सुनाता हूँ जिसे सुनकर बुद्धिमान् पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाता है। जब महाबली तारकशत्रु शिवापुत्र कुमार कार्तिकेय सारी पृथ्वी की परिक्रमा करके फिर कैलास पर्वतपर आये और गणेश के विवाह आदि की बात सुनकर क्रौंच पर्वतपर चले गये, पार्वती और शिवजी के वहाँ जाकर अनुरोध करनेपर भी नहीं लौटे तथा वहाँ से भी बारह कोस दूर चले गये, तब शिव और पार्वती ज्योतिर्मय स्वरूप धारण करके वहाँ प्रतिष्ठित हो गये। वे दोनों पुत्रस्नेह से आतुर हो पर्व के दिन अपने पुत्र कुमार को देखने के लिये उनके पास जाया करते हैं। अमावस्या के दिन भगवान् शंकर स्वयं वहाँ जाते हैं और पूर्णमासी के दिन पार्वती जी निश्चय ही वहाँ पदार्पण करती हैं। उसी दिन से लेकर भगवान् शिव का मल्लिकार्जुन नामक एक लिंग तीनों लोकों में प्रसिद्ध हुआ। (उसमें पार्वती और शिव दोनों की ज्योतियाँ प्रतिष्ठित हैं। 'मल्लिका' का अर्थ पार्वती है और 'अर्जुन' शब्द शिवका' वाचक है।) उस लिंग का जो दर्शन करता है वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और सम्पूर्ण अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है। इसमें संशय नहीं है। इस प्रकार मल्लिकार्जुन नामक द्वितीय ज्योतिर्लिंग का वर्णन किया गया, जो दर्शनमात्र से लोगों के लिये सब प्रकार का सुख देनेवाला बताया गया है।

ऋषियों ने कहा- प्रभो! अब आप विशेष कृपा करके तीसरे ज्योतिर्लिंग का वर्णन कीजिये।

सूतजीने कहा- ब्राह्मणो! मैं धन्य हूँ, कृतकृत्य हूँ, जो आप श्रीमानों का संग मुझे प्राप्त हुआ। साधु पुरुषों का संग निश्चय ही धन्य है। अत: मैं अपना सौभाग्य समझकर पापनाशिनी परम पावनी दिव्य कथा का वर्णन करता हूँ। तुमलोग आदरपूर्वक सुनो। अवन्ति नाम से प्रसिद्ध एक रमणीय नगरी है जो समस्त देहधारियों को मोक्ष प्रदान करनेवाली है। वह भगवान् शिव को बहुत ही प्रिय, परम पुण्यमयी और लोकपावनी है। उस पुरी में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते थे, जो शुभकर्मपरायण, वेदों के स्वाध्याय में संलग्न तथा वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में सदा तत्पर रहनेवाले थे। वे घर में अग्नि की स्थापना करके प्रतिदिन अग्निहोत्र करते और शिव की पूजा में सदा तत्पर रहते थे। वे ब्राह्मण देवता प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा किया करते थे। वेदप्रिय नामक वे ब्राह्मण देवता सम्यक् ज्ञानार्जन में लगे रहते थे; इसलिये उन्होंने सम्पूर्ण कर्मों का फल पाकर वह सद्‌गति प्राप्त कर ली, जो संतों को ही सुलभ होती है। उनके शिवपूजापरायण चार तेजस्वी पुत्र थे, जो पिता-माता से सद्‌गुणों में कम नहीं थे। उनके नाम थे- देवप्रिय, प्रियमेधा, सुकृत और सुव्रत। उनके सुखदायक गुण वहाँ सदा बढ़ने लगे। उनके कारण अवन्ति-नगरी ब्रह्मतेज से परिपूर्ण हो गयी थी।

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