ई-पुस्तकें >> शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव के विभिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन...
अर्जुन और शिवदूत का वार्तालाप, किरातवेषधारी शिवजी के साथ अर्जुन का युद्ध, पहचानने पर अर्जुन द्वारा शिव-स्तुति, शिवजी का अर्जुन को वरदान देकर अन्तर्धान होना, अर्जुन का आश्रम पर लौटकर भाइयों से मिलना, श्रीकृष्ण का अर्जुन से मिलने के लिये वहाँ पधारना
नन्दीश्वरजी कहते हैं- महाज्ञानी सनत्कुमारजी! अब परमात्मा शिव की उस लीला को श्रवण करो, जो भक्तवत्सलता से युक्त तथा उनकी दृढ़ता से भरी हुई है। तदनन्तर शिवजी ने उस बाण को लाने के लिये तुरंत ही अपने अनुचर को भेजा। उधर अर्जुन भी उसी निमित्त वहाँ आये। इस प्रकार एक ही समय में रुद्रानुचर तथा अर्जुन दोनों बाण उठाने के लिये वहाँ पहुंचे। तब अर्जुनने उसे डरा-धमकाकर अपना बाण उठा लिया। यह देखकर उस अनुचर ने कहा- 'ऋषिसत्तम! आप क्यों इस बाण को ले रहे हैं? यह हमारा सायक है, इसे छोड़ दीजिये।' भिल्लराज के उस अनुचर द्वारा यों कहे जानेपर मुनिश्रेष्ठ अर्जुन ने शंकरजी का स्मरण किया और इस प्रकार कहा।
अर्जुन बोले- वनेचर! तू बड़ा मूर्ख है। तू बिना समझे-बूझे क्या बक रहा है? इस बाण को तो मैंने अभी-अभी छोड़ा है फिर यह तेरा कैसे? इसकी धारियों तथा पिच्छों पर मेरा ही नाम अंकित है फिर यह तेरा कैसे हो गया? ठीक है तेरा कुटिल- स्वभाव छूटना कठिन है।
नन्दीश्वरजी कहते हैं- मुने! अर्जुन का वह कथन सुनकर भिल्लरूपी गणेश्वर को हंसी आ गयी। तब वह ऋषिरूप में वर्तमान अर्जुन को यों उत्तर देते हुए बोला- रे तापस! सुन। जान पड़ता है तू तपस्या नहीं कर रहा है केवल तेरा वेष ही तपस्वी का है; क्योंकि सच्चा तपस्वी छल-कपट नहीं करता। भला, जो मनुष्य तपस्या में निरत होगा, वह कैसे मिथ्या भाषण करेगा एवं कैसे छल करेगा। अरे तू मुझे अकेला मत समझ। तुझे ज्ञात होना चाहिये कि मैं एक सेना का अधिपति हूँ। हमारे स्वामी बहुत-से वनचारी भीलों के साथ वहाँ बैठे हैं। वे विग्रह तथा अनुग्रह करने में सर्वथा समर्थ हैं। यह बाण, जिसे तूने अभी उठा लिया है उन्हीं का है। यह बाण कभी तेरे पास टिक नहीं सकेगा। तापस! तू क्यों अपनी तपस्या का फल नष्ट करना चाहता है? मैंने तो ऐसा सुन रखा है कि चोरी करने से, छलपूर्वक किसी को कष्ट पहुँचाने से, विस्मय करने से तथा सत्य का त्याग करने से प्राणी का तप क्षीण हो जाता है-यह बिलकुल सत्य है।
चौर्याच्छलार्द्यमानाच्च विस्मयात्सत्यभञ्जनात्।
तपसा क्षीयते सत्यमेतदेव मया श्रुतम्।।
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