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शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2080
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव के विभिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन...

अर्जुन ने (मन-ही-मन) कहा- 'यह कौन है और कहाँ से आ रहा है? यह तो क्रूरकर्मा दिखायी पड़ रहा है। निश्चय ही यह मेरा अनिष्ट करने के लिये आ रहा है। इसमें तनिक भी संशय नहीं है; क्योंकि जिसका दर्शन होने पर अपना मन प्रसन्न हो जाय, वह निश्चय ही अपना हितैषी है और जिसके दीखने पर मन व्याकुल हो जाय, वह शत्रु ही है। आचार से कुल का, शरीर से भोजन का, वार्तालाप से शास्त्रज्ञान का और नेत्र से स्नेह का परिचय मिलता है। आकार से, चालढाल से, चेष्टा से, बोलने से तथा नेत्र और मुख के विकार से मन के भीतर का भाव जाना जाता है। नेत्र चार प्रकार के कहे गये हैं-उज्ज्वल, सरस, तिरछे और लाल। विद्वानों ने इनका भाव भी पृथकृ-पृथक् बतलाया है। नेत्र मित्र का संयोग होनेपर उज्ज्वल, पुत्रदर्शन के समय सरस, कामिनी के प्राप्त होनेपर वक्र और शत्रु के दीख जाने पर लाल हो जाते हैं। (इस नियमके अनुसार) इसे देखते ही मेरी सारी इन्द्रियाँ कलुषित हो उठी है अत: यह निस्संदेह शत्रु ही है और मार डालने योग्य है। इधर मेरे लिये गुरुजी की आज्ञा भी ऐसी है कि राजन्! जो तुम्हें कष्ट देने के लिये उद्यत हो, उसे तुम बिना किसी प्रकार का विचार किये अवश्य मार डालना तथा मैंने इसीलिये आयुध भी तो धारण कर रखा है।' यों विचारकर अर्जुन बाण का संधान करके वहीं डटकर खड़े हो गये।

इसी बीच भक्तवत्सल भगवान् शंकर अर्जुन की रक्षा, उनकी भक्ति की परीक्षा और उस दैत्य का नाश करने के लिये शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचे। उस समय उनके साथ गणों का यूथ भी था और वे महान् अद्भुत सुशिक्षित भील का रूप धारण किये हुए थे। उनकी काछ बँधी थी और उन्होंने वस्त्रखण्डों से ईशानध्वज बाँध रखा था। उनके शरीर पर श्वेत धारियाँ चमक रही थीं, पीठ पर बाणों से भरा हुआ तरकश बँधा था और वे स्वयं धनुष-बाण धारण किये हुए थे। उनका गण-यूथ भी वैसी ही साज-सज्जा से युक्त था। इस प्रकार शिव भिल्लराज बने हुए थे। वे सेनाध्यक्ष होकर तरह-तरह के शब्द करते हुए आगे बढ़े।

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