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शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2080
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव के विभिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन...

ब्राह्मण बोले- राजन्! मैं अपनी तपस्या से भयंकर ब्रह्महत्या और मदिरापान-जैसे पाप का भी नाश कर डालूंगा। फिर परस्त्री-संगम किस गिनतीमें है। अत: आप अपनी इस भार्या को मुझे अवश्य दे दीजिये अन्यथा आप निश्चय ही नरक में पड़ेंगे।

ब्राह्मणकी इस बातपर राजा ने मन-ही-मन विचार किया कि ब्राह्मण के प्राणों की रक्षा न करने से महापाप होगा, अत: इससे बचने के लिये पत्नी को दे डालना ही श्रेष्ठ है। इस श्रेष्ठ ब्राह्मण को अपनी पत्नी देकर मैं पाप से मुक्त हो शीघ्र ही अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा। मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके राजा ने आग जलायी और ब्राह्मण को बुलाकर उसे अपनी पत्नी को दे दिया।

तत्पश्चात् स्नान करके पवित्र हो देवताओंको प्रणाम करके उन्होंने अग्नि की दो बार परिक्रमा की और एकाग्रचित्त होकर भगवान् शिव का ध्यान किया। इस प्रकार राजा को अग्नि में गिरने के लिये उद्यत देख जगत्पति भगवान् विश्वनाथ सहसा वहाँ प्रकट हो गये। उनके पाँच मुख थे। मस्तक पर चन्द्रकला आभूषण का काम दे रही थी। कुछ-कुछ पीले रंग की जटा लटकी हुई थी। वे कोटि-कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी थे। हाथों में त्रिशूल, खट्‌वांग, कुठार, ढाल, मृग, अभय, वरद और पिनाक धारण किये, बैल की पीठपर बैठे हुए भगवान् नीलकण्ठ को राजा ने अपने सामने प्रत्यक्ष देखा। उनके दर्शनजनित आनन्द से युक्त हो राजा भद्रायु ने हाथ जोड़कर स्तवन किया।

राजा के स्तुति करनेपर पार्वती के साथ प्रसन्न हुए महेश्वर ने कहा- राजन्! तुमने किसी अन्य का चिन्तन न करके जो सदा-सर्वदा मेरा पूजन किया है तुम्हारी इस भक्ति के कारण और तुम्हारे द्वारा की हुई इस पवित्र स्तुति को सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। तुम्हारे भक्तिभाव की परीक्षा के लिये मैं स्वयं ब्राह्मण बनकर आया था। जिसे व्याघ्र ने ग्रस लिया था, वह ब्राह्मणी और कोई नहीं, ये गिरिराज-नन्दिनी उमादेवी ही थीं। तुम्हारे बाण मारने से भी जिसके शरीर को चोट नहीं पहुँची, वह व्याघ्र मायानिर्मित था। तुम्हारे धैर्य को देखने के लिये ही मैंने तुम्हारी पत्नी को माँगा था, इस कीर्तिमालिनी की और तुम्हारी भक्ति से मैं संतुष्ट हूँ। तुम कोई दुर्लभ वर माँगो, मैं उसे दूँगा।

राजा बोले- देव! आप साक्षात् परमेश्वर हैं। आपने सांसारिक ताप से घिरे हुए मुझ अधम को जो प्रत्यक्ष दर्शन दिया है यही मेरे लिये महान् वर है। देव! आप वरदाताओं में श्रेष्ठ हैं। आपसे मैं दूसरा कोई वर नहीं माँगता। मेरी यही इच्छा है कि मैं, मेरी रानी, मेरे माता-पिता, पद्याकर वैश्य और उसके पुत्र सुनय-इन सबको आप अपना पार्श्ववर्ती सेवक बना लीजिये।

तत्पश्चात् रानी कीर्तिमालिनी ने प्रणाम करके अपनी भक्ति से भगवान् शंकर को प्रसन्न किया और यह उत्तम वर माँगा-'महादेव! मेरे पिता चन्द्रांगद और माता सीमन्तिनी इन दोनों को भी आपके समीप निवास प्राप्त हो।' भक्तवत्सल भगवान् गौरीपति ने प्रसन्न होकर 'एवमस्तु' कहा और उन दोनों पति-पत्नी को इच्छानुसार वर देकर वे क्षणभर में अन्तर्धान हो गये। इधर राजा ने भगवान् शंकर का प्रसाद प्राप्त करके रानी कीर्तिमालिनी के साथ प्रिय विषयों का उपभोग किया और दस हजार वर्षों तक राज्य करने के पश्चात् अपने पुत्रों को राज्य देकर उन्होंने शिवजी के परमपद को प्राप्त किया। राजा और रानी दोनों ही भक्तिपूर्वक महादेवजी की पूजा करके भगवान् शिव के धाम को प्राप्त हुए। यह परम पवित्र, पाप-नाशक एवं अत्यन्त गोपनीय भगवान् शिव का विचित्र गुणानुवाद जो विद्वानों को सुनाता है अथवा स्वयं भी शुद्धचित्त होकर पढ़ता है वह इस लोकमें भोग-ऐश्वर्य को प्राप्तकर अन्त में भगवान् शिव को प्राप्त होता है।

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