ई-पुस्तकें >> शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
|
0 |
भगवान शिव के विभिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन...
मुनीश्वरो! तदनन्तर ब्रह्मा का दूसरा कल्प प्रारम्भ हुआ। वह परम अद्भुत था और 'विश्वरूप' नामसे विख्यात था। उस कल्पमें जब ब्रह्मा जी पुत्र की कामना से मन-ही-मन शिवजी का ध्यान कर रहे थे, उसी समय महान् सिंहनाद करनेवाली विश्वरूपा सरस्वती प्रकट हुईं तथा उसी प्रकार परमेश्वर भगवान् ईशान प्रादुर्भूत हुए, जिनका वर्ण शुद्ध स्फटिक के समान उज्ज्वल था और जो समस्त आभूषणों से विभूषित थे। उन अजन्मा, सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी, सब कुछ प्रदान करनेवाले, सर्वस्वरूप, सुन्दर रूपवाले तथा अरूप ईशान को देखकर ब्रह्माजी ने उन्हें प्रणाम किया। तब शक्तिसहित विभु ईशान ने भी ब्रह्मा को सन्मार्ग का उपदेश देकर चार सुन्दर बालकों की कल्पना की। उन उत्पन्न हुए शिशुओं का नाम था- जटी, मुण्डी, शिखण्डी और अर्धमुण्ड। वे योगानुसार सद्धर्म का पालन करके योगगति को प्राप्त हो गये। (यह 'ईशान' नामक पाँचवाँ अवतार हुआ)
सर्वज्ञ सनत्कुमारजी! इस प्रकार मैंने जगत् की हितकामना से सद्योजात आदि अवतारों का प्राकट्य संक्षेप से वर्णन किया। उनका वह सारा लोकहितकारी व्यवहार यथातथ्यरूप से ब्रह्माण्ड में वर्तमान है। महेश्वर की ईशान, पुरुष, घोर, वामदेव और ब्रह्म- ये पाँच मूर्तियाँ विशेषरूप से प्रसिद्ध हैं। इनमें ईशान, जो शिवस्वरूप तथा सबसे बड़ा है पहला कहा जाता है। वह साक्षात् प्रकृति के भोक्ता क्षेत्रज्ञ में निवास करता है। शिवजी का दूसरा स्वरूप तत्पुरुष नाम से ख्यात है। वह गुणों के आश्रयरूप तथा भोग्य सर्वज्ञ में अधिष्ठित है। पिनाकधारी शिव का जो अघोर नामक तीसरा स्वरूप है वह धर्म के लिये अंगोंसहित बुद्धितत्त्व का विस्तार करके अंदर विराजमान रहता है। वामदेव नामवाला शंकर का चौथा स्वरूप अहंकार का अधिष्ठान है। वह सदा अनेकों प्रकार का कार्य करता रहता है। विचारशील बुद्धिमानों का कथन है कि शंकर का ईशान संज्ञक स्वरूप सदा कर्ण, वाणी और सर्वव्यापी आकाश का अधीश्वर है तथा महेश्वर का पुरुष नामक रूप त्वक्, पाणि और स्पर्शगुणविशिष्ट वायु का स्वामी है। मनीषीगण अघोर नामवाले रूप को शरीर, रस, रूप और अग्नि का अधिष्ठान बतलाते हैं। शंकरजी का वामदेवसंज्ञक स्वरूप रसना, पायु, रस और जल का स्वामी कहा जाता है। प्राण, उपस्थ, गन्ध और पृथ्वी का ईश्वर शिवजी का सद्योजात नामक रूप बताया जाता है। कल्याणकामी मनुष्यों को शंकरजीके इन स्वरूपों की सदा प्रयत्नपूर्वक वन्दना करनी चाहिये; क्योंकि ये श्रेयःप्राप्ति में एकमात्र हेतु हैं। जो मनुष्य इन सद्योजात आदि अवतारों के प्राकट्य को पढ़ता अथवा सुनता है वह जगत् में समस्त काम्य भोगों का उपभोग करके अन्त में परमगति को प्राप्त होता है।
|