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शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2080
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव के विभिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन...

अध्याय ७

नन्दीश्वर के जन्म, वर प्राप्ति अभिषेक और विवाह का वर्णन

नन्दिकेश्वर कहते हैं- मुने! वन में जाकर मैंने एकान्त स्थान में अपना आसन लगाया और उत्तम बुद्धि का आश्रय ले मैं उग्र तप में प्रवृत्त हुआ, जो बड़े-बड़े मुनियों के लिये भी दुष्कर था। उस समय मैं नदी के पावन उत्तर तटपर सुदृढ़रूप से ध्यान लगाकर बैठ गया और एकाग्र तथा समाहित मन से अपने हृदयकमल के मध्यभाग में तीन नेत्र, दस भुजा तथा पाँच मुखवाले शान्तिस्वरूप देवाधिदेव सदाशिव का ध्यान करके रुद्र-मन्त्र का जप करने लगा। तब उस जप में मुझे तल्लीन देखकर चन्द्रार्धभूषण परमेश्वर महादेव प्रसन्न हो गये और उमासहित वहाँ पधारकर प्रेमपूर्वक बोले।

शिवजीने कहा- 'शिलादनन्दन! तुमने बड़ा उत्तम तप किया है। तुम्हारी इस तपस्या से संतुष्ट होकर मैं तुम्हें वर देने के लिये आया हूँ। तुम्हारे मन में जो अभीष्ट हो, वह माँग लो।' महादेवजी के यों कहनेपर मैं सिर के बल उनके चरणों में लोट गया और फिर बुढ़ापा तथा शोक का विनाश करनेवाले परमेशान की स्तुति करने लगा। तब परम कष्टहारी वृषभध्वज परमेश्वर शम्भु ने मुझ परम भक्तिसम्पन्न नन्दी को जिसके नेत्रों में आँसू छलक आये थे और जो सिर के बल चरणों में पड़ा था, अपने दोनों हाथों से पकड़कर उठा लिया और शरीरपर हाथ फेरने लगे। फिर वे जगदीश्वर गणाध्यक्षों तथा हिमाचलकुमारी पार्वतीदेवी की ओर दृष्टिपात करके मुझे कृपादृष्टि से देखते हुए यों कहने लगे- 'वत्स नन्दी! उन दोनों विप्रों को तो मैंने ही भेजा था। महाप्राज्ञ! तुम्हें मृत्यु का भय कहाँ; तुम तो मेरे ही समान हो। इसमें तनिक भी संशय नहीं है। तुम अमर, अजर, दुःखरहित, अव्यय और अक्षय होकर सदा गणनायक बने रहोगे तथा पिता और सुहत्‌वर्ग सहित मेरे प्रियजन होओगे। तुममें मेरे ही समान बल होगा। तुम नित्य मेरे पार्श्वभाग में स्थित रहोगे और तुमपर निरन्तर मेरा प्रेम बना रहेगा। मेरी कृपा से जन्म, जरा और मृत्यु तुम पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकेंगे।'

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