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शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2080
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव के विभिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन...

शिलाद बोले- सुरेश्वर! चूंकि तुमने नन्दी नाम से प्रकट होकर मुझे आनन्दित किया है इसलिये मैं तुम आनन्दमय जगदीश्वर को नमस्कार करता हूँ।

नन्दीश्वरजी कहते हैं- मुने! तदनन्तर जैसे निर्धन को निधि प्राप्त हो जाने से प्रसन्नता होती है उसी प्रकार मेरी प्राप्ति से हर्षित होकर पिताजी ने महेश्वर की भलीभांति वन्दना की और फिर मुझे लेकर वे शीघ्र ही अपनी पर्णशाला को चल दिये। महामुने! जब मैं शिलाद की कुटिया में पहुँच गया, तब मैंने अपने उस रूप का परित्याग करके मनुष्यरूप धारण कर लिया। तदनन्तर शालंकायन-नन्दन पुत्रवत्सल शिलाद ने मेरे जातकर्म आदि सभी संस्कार सम्पन्न किये। फिर पाँचवें वर्ष में पिताजी ने मुझे सांगोपांग सम्पूर्ण वेदों का तथा अन्यान्य शास्त्रों का भी अध्ययन कराया। सातवाँ वर्ष पूरा होनेपर शिवजी की आज्ञा से मित्र और वरुण नाम के मुनि मुझे देखने के लिये पिताजी के आश्रम पर पधारे। शिलाद मुनि ने उनकी पूरी आवभगत की। जब वे दोनों महात्मा मुनीश्वर आनन्दपूर्वक आसनपर विराज गये, तब मेरी ओर बारंबार निहारकर बोले।

मित्र और वरुण ने कहा- 'तात शिलाद! यद्यपि तुम्हारा पुत्र नन्दी सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थों का पारगामी विद्वान् है तथापि इसकी आयु बहुत थोड़ी है। हमने बहुत तरह से विचार करके देखा, परंतु इसकी आयु एक वर्ष से अधिक नहीं दीखती।' उन विप्रवरों के यों कहनेपर पुत्रवत्सल शिलाद नन्दी को छाती से लिपटाकर दुःखार्त हो फूट-फूटकर रोने लगे। तब पिता और पितामह को मृतक की भांति भूमिपर पड़ा हुआ देख नन्दी शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके प्रसन्नतापूर्वक पूछने लगा-'पिताजी! आपको कौन-सा ऐसा दुःख आ पड़ा है जिसके कारण आपका शरीर काँप रहा है और आप रो रहे हैं? आपको वह दुःख कहाँसे प्राप्त हुआ है मैं इसे ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ।'

पिताने कहा- बेटा! तुम्हारी अल्पायुके दुःखसे मैं अत्यन्त दुःखी हो रहा हूँ। (तुम्हीं बताओ) मेरे इस कष्ट को कौन दूर कर सकता है? मैं उसकी शरण ग्रहण करूँ।

पुत्र बोला- पिताजी! मैं आपके सामने शपथ करता हूँ और यह बिलकुल सत्य बात कह रहा हूँ कि चाहे देवता, दानव, यम, काल तथा अन्यान्य प्राणी- ये सब-के-सब मिलकर मुझे मारना चाहे तो भी मेरी बाल्यकाल में मृत्यु नहीं होगी, अत: आप दुःखी मत हों।

पिताने पूछा- मेरे प्यारे लाल! तुमने ऐसा कौन-सा तप किया है अथवा तुम्हें कौन-सा ऐसा ज्ञान, योग या ऐश्वर्य प्राप्त है जिसके बलपर तुम इस दारुण दुःख को नष्ट कर दोगे?

पुत्रने कहा- तात! मैं न तो तप से मृत्यु को हटाऊंगा और न विद्या से। मैं महादेवजी के भजन से मृत्यु को जीत लूँगा, इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है।

नन्दीश्वरजी कहते हैं- मुने! यों कहकर मैंने सिर झुकाकर पिताजी के चरणोंमें प्रणाम किया और फिर उनकी प्रदक्षिणा करके उत्तम वन की राह ली।

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