ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
अत: वृषभध्वज! आपको प्रतिदिन सृष्टि आदि के उपयुक्त कार्य करने के लिये उद्यत रहना चाहिये। यदि सृष्टि, पालन और संहार-रूप कर्म न करने हों तब तो हमने माया से जो भिन्न-भिन्न शरीर धारण किये हैं उनकी कोई उपयोगिता अथवा औचित्य ही नहीं है। वास्तव में हम तीनों एक ही हैं, कार्य के भेद से भिन्न-भिन्न देह धारण करके स्थित हैं। यदि कार्यभेद न सिद्ध हो, तब तो हमारे रूपभेद का कोई प्रयोजन ही नहीं है। देव! एक ही परमात्मा महेश्वर तीन स्वरूपों में अभिव्यक्त हुए हैं। इस रूपभेद में उनकी अपनी माया ही कारण है। वास्तव में प्रभु स्वतन्त्र हैं। वे लीला के उद्देश्य से ही ये सृष्टि आदि कार्य करते हैं। भगवान् श्रीहरि उनके बायें अंग से प्रकट हुए हैं मैं ब्रह्मा उनके दायें अंग से प्रकट हुआ हूँ और आप रुद्रदेव उन सदाशिव के हृदय से आविर्भूत हुए हैं; अत: आप ही शिव के पूर्ण रूप हैं। प्रभो! इस प्रकार अभिन्नरूप होते हुए भी हम तीन रूपों में प्रकट हैं। सनातनदेव! हम तीनों उन्हीं भगवान् सदाशिव और शिवा के पुत्र हैं इस यथार्थ तत्त्व का आप हृदय से अनुभव कीजिये। प्रभो! मैं और श्रीविष्णु आपके आदेश से प्रसन्नता-पूर्वक लोक की सृष्टि और पालन के कार्य कर रहे हैं तथा कार्य-कारणवश सपत्नीक भी हो गये हैं; अत: आप भी विश्वहित के लिये तथा देवताओं को सुख पहुँचाने के लिये एक परम सुन्दरी रमणी को अपनी पत्नी बनाने के लिये ग्रहण करें। महेश्वर! एक बात और है उसे सुनिये; मुझे पहले के वृत्तान्त का स्मरण हो आया है। पूर्वकाल में आपने ही शिवरूप से जो बात हमारे सामने कही थी, वही इस समय सुना रहा हूँ। आपने कहा था, 'ब्रह्मन्! मेरा ऐसा ही उत्तम रूप तुम्हारे अंगविशेष-ललाट से प्रकट होगा, जिसकी लोक में 'रुद्र' नाम से प्रसिद्धि होगी। तुम ब्रह्मा सृष्टिकर्ता हो गये, श्रीहरि जगत् का पालन करनेवाले हुए और मैं सगुण रुद्ररूप होकर संहार करनेवाला होऊँगा। एक स्त्री के साथ विवाह करके लोक के उत्तम कार्य की सिद्धि करूँगा।' अपनी कही हुई इस बात को याद करके आप अपनी ही पूर्व प्रतिज्ञा को पूर्ण कीजिये। स्वामिन्! आप का यह आदेश है कि मैं सृष्टि करूँ, श्रीहरि पालन करें और आप स्वयं संहार के हेतु बनकर प्रकट हों; सो आप साक्षात् शिव ही संहारकर्ता के रूप में प्रकट हुए हैं। आपके बिना हम दोनों अपना-अपना कार्य करने में समर्थ नहीं हैं; अत: आप एक ऐसी कामिनी को स्वीकार करें, जो लोकहित के कार्य में तत्पर रहे। शम्भो! जैसे लक्ष्मी भगवान् विष्णु की और सावित्री मेरी सहधर्मिणी हैं, उसी प्रकार आप इस समय अपनी जीवनसहचरी प्राणवल्लभा को ग्रहण करें।
मेरी यह बात सुनकर लोकेश्वर महादेवजी के मुख पर मुसकराहट दौड़ गयी। वे श्रीहरि के सामने मुझसे इस प्रकार बोले।
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