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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

मेरे ऐसा कहने पर शिव की आज्ञा में तत्पर रहनेवाले महाविष्णु ने अनन्तरूप का आश्रय ले उस अण्ड में प्रवेश किया। उस समय उन परम पुरुष के सहस्त्रों मस्तक, सहस्रोंनेत्र और सहस्रों पैर थे। उन्होंने भूमि को सब ओर से घेरकर उस अण्ड को व्याप्त कर लिया। मेरे द्वारा भलीभांति स्तुति की जाने पर जब श्रीविष्णु ने उस अण्ड में प्रवेश किया, तब वह चौबीस तत्त्वों का विकाररूप अण्ड सचेतन हो गया। पाताल से लेकर सत्यलोक तक की अवधिवाले उस अण्ड के रूप में वहाँ साक्षात् श्रीहरि ही विराजने लगे। उस विराट अण्ड में व्यापक होनेसे ही वे प्रभु 'वैराज पुरुष' कहलाये। पंचमुख महादेव ने केवल अपने रहने के लिये सुरम्य कैलास-नगर का निर्माण किया, जो सब लोकों से ऊपर सुशोभित होता है। देवर्षे! सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का नाश हो जाने पर भी वैकुण्ठ और कैलास - इन दो धामों का यहाँ कभी नाश नहीं होता। मुनिश्रेष्ठ! मैं सत्यलोक का आश्रय लेकर रहता हूँ। तात! महादेवजी की आज्ञा से ही मुझमें सृष्टि रचने की इच्छा उत्पन्न हुई है। बेटा! जब मैं सृष्टि की इच्छा से चिन्तन करने लगा, उस समय पहले मुझसे अनजान में ही पापपूर्ण तमोगुणी सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे अविद्या-पंचक (अथवा पंचपर्वा अविद्या) कहते हैं। तदनन्तर प्रसन्नचित्त होकर शम्भु की आज्ञा से मैं पुन: अनासक्त-भाव से सृष्टि का चिन्तन करने लगा। उस समय मेरे द्वारा स्थावर-संज्ञक वृक्ष आदि की सृष्टि हुई, जिसे मुख्य-सर्ग कहते हैं। (यह पहला सर्ग है।) उसे देखकर तथा वह अपने लिये पुरुषार्थ का साधक नहीं है यह जानकर सृष्टि की इच्छावाले मुझ ब्रह्मा से दूसरा सर्ग प्रकट हुआ, जो दुःखसे भरा हुआ है; उसका नाम है- तिर्यक्स्रोता। वह सर्ग भी पुरुषार्थ का साधक नहीं था। उसे भी पुरुषार्थ-साधन की शक्ति से रहित जान जब मैं पुन: सृष्टि का चिन्तन करने लगा, तब मुझसे शीघ्र ही तीसरे सात्त्विक सर्ग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे 'ऊर्ध्वस्रोता' कहते हैं। यह देवसर्ग के नाम से विख्यात हुआ। देवसर्ग सत्यवादी तथा अत्यन्त सुखदायक है। उसे भी पुरुषार्थ साधन की रुचि एवं अधिकार से रहित मानकर मैंने अन्य सर्ग के लिये अपने स्वामी श्रीशिव का चिन्तन आरम्भ किया। तब भगवान् शंकर की आज्ञा से एक रजोगुणी सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे अर्वाक्स्रोता कहा गया है। इस सर्ग के प्राणी मनुष्य हैं जो पुरुषार्थ-साधन के उच्च अधिकारी हैं। तदनन्तर महादेवजी की आज्ञा से भूत आदि की सृष्टि हुई। इस प्रकार मैंने पाँच तरह की वैकृत सृष्टि का वर्णन किया है।

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