ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
सृष्टि का वर्णन
तदनन्तर नारदजी के पूछने पर ब्रह्माजी बोले- मुने! हमें पूर्वोक्त आदेश देकर जब महादेवजी अन्तर्धान हो गये, तब मैं उनकी आज्ञा का पालन करने के लिये ध्यानमग्न हो कर्तव्य का विचार करने लगा। उस समय भगवान् शंकर को नमस्कार करके श्रीहरि से ज्ञान पाकर परमानन्द को प्राप्त हो मैंने सृष्टि करने का ही निश्चय किया। तात! भगवान् विष्णु भी वहाँ सदाशिव को प्रणाम करके मुझे आवश्यक उपदेश दे तत्काल अदृश्य हो गये। वे ब्रह्माण्ड से बाहर जाकर भगवान् शिव की कृपा प्राप्त करके वैकुण्ठधाम में जा पहुँचे और सदा वहीं रहने लगे। मैंने सृष्टि की इच्छा से भगवान् शिव और विष्णु का स्मरण करके पहले के रचे हुए जल में अपनी अंजलि डालकर जल को ऊपर की ओर उछाला। इससे वहाँ एक अण्ड प्रकट हुआ, जो चौबीस तत्त्वों का समूह कहा जाता है। विप्रवर! वह विराट-आकारवाला अण्ड जड़रूप ही था। उसमें चेतनता न देखकर मुझे बड़ा संशय हुआ और मैं अत्यन्त कठोर तप करने लगा। बारह वर्षों तक भगवान् विष्णु के चिन्तन में लगा रहा। तात! वह समय पूर्ण होने पर भगवान् श्रीहरि स्वयं प्रकट हुए और बड़े प्रेम से मेरे अंगों का स्पर्श करते हुए मुझसे प्रसन्नतापूर्वक बोले।
श्रीविष्णु ने कहा- ब्रह्मन्! तुम वर माँगो। मैं प्रसन्न हूँ। मुझे तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है। भगवान् शिव की कृपासे मैं सब कुछ देने में समर्थ हूँ।
ब्रह्मा बोले- (अर्थात् मैंने कहा) महाभाग! आपने जो मुझपर कृपा की है वह सर्वथा उचित ही है; क्योंकि भगवान् शंकर ने मुझे आपके हाथों में सौंप दिया है। विष्णो! आपको नमस्कार है। आज मैं आप से जो कुछ माँगता हूँ, उसे दीजिये। प्रभो! यह विराट्-रूप चौबीस तत्त्वों से बना हुआ अण्ड किसी तरह चेतन नहीं हो रहा है जड़ीभूत दिखायी देता है। हरे! इस समय भगवान् शिव की कृपा से आप यहाँ प्रकट हुए हैं। अत: शंकर की सृष्टि-शक्ति या विभूति से प्राप्त हुए इस अण्ड में चेतनता लाइये।
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