ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
मनुष्य को जबतक ज्ञान की प्राप्ति न हो, तबतक वह विश्वास दिलाने के लिये कर्म से ही भगवान् शिव की आराधना करे। जगत् के लोगों को एक ही परमात्मा अनेक रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। एकमात्र भगवान् सूर्य एक स्थान में रहकर भी जलाशय आदि विभिन्न वस्तुओं में अनेक-से दीखते हैं। देवताओं! संसार में जो-जो सत् या असत् वस्तु देखी या सुनी जाती है वह सब परब्रह्म शिवरूप ही है - ऐसा समझो। जबतक तत्त्वज्ञान न हो जाय, तबतक प्रतिमा की पूजा आवश्यक है। ज्ञान के अभाव में भी जो प्रतिमा-पूजा की अवहेलना करता है? उसका पतन निश्चित है। इसलिये ब्राह्मणो! यह यथार्थ बात सुनो। अपनी जाति के लिये जो कर्म बताया गया है उसका प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। जहाँ- जहाँ यथावत् भक्ति हो, उस-उस आराध्य-देव का पूजन आदि अवश्य करना चाहिये; क्योंकि पूजन और दान आदि के बिना पातक दूर नहीं होते।
यत्र यत्र यथाभक्ति: कर्तव्य पूजनादिकम्।
विना पूजनदानादि पातकं न च दूरत:।।
जैसे मैले कपड़े में रंग बहुत अच्छा नहीं चढ़ता है किंतु जब उसको धोकर स्वच्छ कर लिया जाता है तब उसपर सब रंग अच्छी तरह चढ़ते हैं उसी प्रकार देवताओं की भलीभांति पूजा से जब त्रिविध शरीर पूर्णतया निर्मल हो जाता है तभी उस पर ज्ञान का रंग चढ़ता है और तभी विज्ञान का प्राकट्य होता है। जब विज्ञान हो जाता है तब भेदभाव की निवृत्ति हो जाती है। भेद की सम्पूर्णतया निवृत्ति हो जानेपर द्वन्द्व-दुःख दूर हो जाते हैं और द्वन्द्व-दुःख से रहित पुरुष शिवरूप हो जाता है।
मनुष्य जबतक गृहस्थ-आश्रम में रहे तबतक पाँचों देवताओं की तथा उनमें श्रेष्ठ भगवान् शंकर की प्रतिमा का उत्तम प्रेम के साथ पूजन करे। अथवा जो सबके एकमात्र मूल हैं उन भगवान् शिव की ही पूजा सबसे बढ़कर है; क्योंकि मूल के सींचे जाने पर शाखास्थानीय सम्पूर्ण देवता स्वत: तृप्त हो जाते हैं। अत: जो सम्पूर्ण मनोवांछित फलों को पाना चाहता है वह अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिये समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहकर लोककल्याण कारी भगवान् शंकर का पूजन करे।
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