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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

भगवान् शंकर की यह आज्ञा पाकर वे सातों ऋषि तुरंत ही उस स्थानपर जा पहुँचे, जहाँ दीप्तिमती जगन्माता पार्वती विराजमान थीं। सप्तर्षियों ने वहाँ शिवा को तपस्या की मूर्तिमती दूसरी सिद्धि के समान देखा। उनका तेज महान् था। वे अपने उत्तम तेज से प्रकाशित हो रही थीं। उन उत्तम व्रतधारी सप्तर्षियों ने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और उनके द्वारा विशेषत: पूजित हो वे मस्तक झुकाये इस प्रकार बोले-

ऋषियों ने कहा- देवि! गिरिराजनन्दिनि! हमारी यह बात सुनो। हम जानना चाहते हैं कि तुम किसलिये तपस्या करती हो? तथा इसके द्वारा किस देवता को और किस फल को पाना चाहती हो?

उन द्विजों के इस प्रकार पूछने पर गिरिराजकुमारी देवी शिवा ने उनके सामने अत्यन्त गोपनीय होने पर भी सच्ची बात बतायी।

पार्वती बोलीं- मुनीश्वरो! आपलोग प्रसन्नतापूर्ण हृदय से मेरी बात सुनें। मैंने अपनी बुद्धि से जिसका चिन्तन किया है अपना वह विचार मैं आपके सामने रखती हूँ। आपलोग मेरी असम्भव बातें सुनकर मेरा उपहास करेंगे, इसलिये उन्हें कहने में संकोच ही होता है तथापि कहती हूँ। क्या करूँ? मेरा यह मन अत्यन्त दृढ़तापूर्वक एक उत्कृष्ट कर्म के अनुष्ठान में लगा है और ऐसा करने के लिये विवश हो गया। यह पानी के ऊपर बहुत बड़ी और ऊँची दीवार खड़ी करना चाहता है। देवर्षि का उपदेश पाकर मैं 'भगवान् रुद्र मेरे पति हों' इस मनोरथ को मन में लिये अत्यन्त कठोर तप कर रही हूँ। मेरा मनरूपी पक्षी बिना पाँख के ही हठपूर्वक आकाश में उड़ रहा है। मेरे स्वामी करुणानिधान भगवान् शंकर ही उसके इस आशा की पूर्ति कर सकते हैं। पार्वती का यह वचन सुनकर वे मुनि हँस पड़े और गिरिजा का सम्मान करते हुए प्रसन्नतापूर्वक छलयुक्त मिथ्या वचन बोले।

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