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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

सागर बोला- सर्वेश्वर ब्रह्मन्! आप यहाँ किसलिये पधारे हैं? मुझे अपना सेवक समझ इस बात को प्रीतिपूर्वक कहिये। सागर की बात सुनकर भगवान् शंकर का स्मरण करके लोकहित का ध्यान  रखते हुए मैंने उससे प्रसन्नतापूर्वक कहा- 'तात समुद्र! तुम बड़े बुद्धिमान् और सम्पूर्ण लोकों के हितकारी हो। मैं शिव की इच्छा से प्रेरित हो हार्दिक प्रीतिपूर्वक तुमसे कह रहा हूँ। यह भगवान् महेश्वर का क्रोध है जो महान् शक्तिशाली अश्व के रूप में यहाँ उपस्थित है। यह कामदेव को दग्ध करके तुरंत ही सम्पूर्ण जगत् को भस्म करने के लिये उद्यत हो गया था। यह देख पीड़ित हुए देवताओं की प्रार्थना से मैं शंकरेच्छावश वहाँ गया और इस अग्नि को स्तम्भित किया। फिर इसने घोड़े का रूप धारण किया और इसे लेकर मैं यहाँ आया। जलाधार! मैं जगत् पर दया करके तुम्हें यह आदेश दे रहा हूँ- इस महेश्वर के क्रोध को, जो वाडव का रूप धारण करके मुख से ज्वाला प्रकट करता हुआ खड़ा है तुम प्रलयकालपर्यन्त धारण किये रहो। सरित्पते! जब मैं यहाँ आकर वास करूँगा, तब तुम भगवान् शंकर के इस अद्भुत क्रोध को छोड़ देना। तुम्हारा जल ही प्रतिदिन इसका भोजन होगा। तुम यत्नपूर्वक इसे ऊपर ही धारण किये रहना, जिससे यह तुम्हारी अनन्त जलराशि के भीतर न चला जाय।'

ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! मेरे ऐसा कहने पर समुद्र ने रुद्र की क्रोधाग्निरूप वडवानल को धारण करना स्वीकार कर लिया, जो दूसरे के लिये असम्भव था। तदनन्तर वह वडवाग्नि समुद्र में प्रविष्ट हुई और ज्वालामालाओं से प्रदीप्त हो सागर की जलराशि का दहन करने लगी। मुने! इससे संतुष्टचित्त होकर मैं अपने लोक को चला आया और वह दिव्यरूपधारी समुद्र मुझे प्रणाम करके अदृश्य हो गया। महामुने। रुद्र की उस क्रोधाग्नि के भय से छूटकर सम्पूर्ण जगत् स्वस्थता का अनुभव करने लगा और देवता तथा मुनि सुखी हो गये।

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