ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
वृहस्पति बोले- इन्द्र! भगवान् विष्णु ने पहले जो कुछ कहा था, वह सब इस समय घटित हो गया। मैं उसी को स्पष्ट कर रहा हूँ। सावधान होकर सुनो। समस्त कर्मों का फल देनेवाला जो कोई ईश्वर है वह कर्ता का ही आश्रय लेता है - कर्म करनेवाले को ही उस कर्म का फल देता है। जो कर्म करता ही नहीं, उसको फल देने में वह भी समर्थ नहीं है (अत: जो ईश्वरको जानकर उसका आश्रय लेकर सत्कर्म करता है उसीको उस कर्मका फल मिलता है ईश्वरद्रोही को नहीं)। न मन्त्र, न ओषधियाँ, न समस्त आभिचारिक कर्म, न लौकिक पुरुष, न कर्म, न वेद, न पूर्व और उत्तरमीमांसा तथा न नाना वेदों से युक्त अन्यान्य शास्त्र ही ईश्वर को जानने में समर्थ होते हैं - ऐसा प्राचीन विद्वानों का कथन है। अनन्यशरण भक्तों को छोड़कर दूसरे लोग सम्पूर्ण वेदों का दस हजार बार स्वाध्याय करके भी महेश्वर को भलीभांति नहीं जान सकते - यह महाश्रुति का कथन है। अवश्य भगवान् शिव के अनुग्रह से ही सर्वथा शान्त, निर्विकार एवं उत्तम दृष्टि से सदाशिव के तत्त्व का साक्षात्कार (ज्ञान) हो सकता है। सुरेश्वर! क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य, इसका विवेचन करना अभीष्ट होनेपर मैं जो इसमें सिद्धि का उत्तम अंश है, उसी का प्रतिपादन करूँगा। तुम अपने हित के लिये उसे ध्यान देकर सुनो। इन्द्र! तुम लोकपालों के साथ आज नादान बनकर दक्ष-यज्ञ में आ गये। बताओ तो, यहाँ क्या पराक्रम करोगे? भगवान् रुद्र जिनके सहायक हैं ऐसे ये परम क्रोधी रुद्रगण इस यज्ञ में विघ्न डालने के लिये आये हैं और अपना काम पूरा करेंगे- इसमें संशय नहीं है। मैं सत्य-सत्य कहता हूँ कि इस यज्ञ के विघ्न का निवारण करने के लिये वस्तुत: तुममें से किसी के पास भी सर्वथा कोई उपाय नहीं है।
वृहस्पतिकी यह बात सुनकर वे इन्द्र-सहित समस्त लोकपाल बड़ी चिन्ता में पड़ गये। तब महावीर रुद्रगणों से घिरे हुए वीरभद्र ने मन-ही-मन भगवान् शंकर का स्मरण करके इन्द्र आदि लोकपालों को डाँटा और इसके पश्चात् रुद्रगणों के नायक वीरभद्र ने रोष से भरकर तुरंत ही सम्पूर्ण देवताओं को तीखे बाणों से घायल कर दिया। उन बाणों की चोट खाकर इन्द्र आदि समस्त सुरेश्वर भागते हुए दसो दिशाओं मे चले गये। जब लोकपाल चले गये और देवता भाग खड़े हुए तब वीरभद्र अपने गणों के साथ यज्ञशाला के समीप गये। उस समय वहाँ विद्यमान समस्त ऋषि अत्यन्त भयभीत हो परमेश्वर श्रीहरि से रक्षा की प्रार्थना करने के लिये सहसा नतमस्तक हो शीघ्र बोले- 'देवदेव! रमानाथ! सर्वेश्वर! महाप्रभो! आप दक्ष के यज्ञ की रक्षा कीजिये। आप ही यज्ञ हैं इसमें संशय नहीं है। यज्ञ आपका कर्म, रूप और अंग है। आप यज्ञ के रक्षक हैं। अत: दक्ष-यज्ञ की रक्षा कीजिये। आपके सिवा दूसरा कोई इसका रक्षक नहीं है।'
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