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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

शिवे! भक्तिके उपांग भी बहुत-से बताये गये हैं। देवि! अब तुम मन लगाकर मेरी भक्तिके पूर्वोक्त नवों अंगोंके पृथक्-पृथक् लक्षण सुनो; वे लक्षण भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। जो स्थिर आसनसे बैठकर तन-मन आदिसे मेरी कथा-कीर्तन आदिका नित्य सम्मान करता हुआ प्रसन्नतापूर्वक अपने श्रवणपुटों से उसके अमृतोपम रसका पान करता है उसके इस साधनको  ' श्रवण ' कहते हैं। जो हृदयाकाशके द्वारा मेरे दिव्य जन्म-कर्मों का चिन्तन करता हुआ प्रेम से वाणी द्वारा उनका उच्चस्वर से उच्चारण करता है उसके इस भजन- साधनको ' कीर्तन ' कहते हैं। देवि! मुझ नित्य महेश्वर को सदा और सर्वत्र व्यापक जानकर जो संसार में निरन्तर निर्भय रहता है? उसीको स्मरण कहा गया है। अरुणोदय से लेकर हर समय सेव्य की अनुकूलता का ध्यान रखते हुए हृदय और इन्द्रियोंसे जो निरन्तर सेवा की जाती है, वही ' सेवन ' नामक भक्ति है। अपनेको प्रभुका किंकर समझकर हृदयामृत के भोग से स्वामीका सदा प्रिय सम्पादन करना ' दास्य ' कहा गया है। अपने धन-वैभव के अनुसार शास्त्रीय विधिसे मुझ परमात्माको सदा पाद्य आदि सोलह उपचारों का जो समर्पण करना है उसे ' अर्चन ' कहते हैं। मन से ध्यान और वाणी से वन्दनात्मक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक आठों अंगों से भूतलका स्पर्श करते हुए जो इष्टदेवको नमस्कार किया जाता है उसे ' वन्दन ' कहते हैं। ईश्वर मंगल या अमंगल जो कुछ भी करता है, वह सब मेरे मंगल के लिये ही है। ऐसा दृढ़ विश्वास रखना ' सख्य ' भक्तिका लक्षण है।

मङ्गग्लामङ्गलं यद् यत् करोतीतीश्वरो हि मे।
सर्वं तन्मङ्गालायेति विश्वास: सख्यलक्षणमू।।

(शि० पु० रु० सं० स० ख० २३। ३२ )

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