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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

शिव बोले-देवि! दक्षनन्दिनि। महेश्वरि सुनो; मैं उसी परमतत्त्वका वर्णन करता हूँ, जिससे वासनाबद्ध जीव तत्काल मुक्त हो सकताहै। परमेश्वरि! तुम विज्ञानको परमतत्त्व जानो। विज्ञान वह है जिसके उदय होनेपर  ' मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाता है ब्रह्मके सिवा दूसरी किसी वस्तुका स्मरण नहीं रहता तथा उस विज्ञानी पुरुषकी बुद्धि सर्वथा शुद्ध हो जाती है। प्रिये! वह विज्ञान दुर्लभ है। इस त्रिलोकीमें उसका ज्ञाता कोई विरला ही होता है। वह जो और जैसा भी है सदा मेरा स्वरूप ही है? साक्षात्परात्पर ब्रह्म है। उस विज्ञानकी माता है मेरी भक्ति, जो भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाली है। वह मेरी कृपासे सुलभ होती है। भक्ति नौ प्रकारकी बतायी गयी है। सती! भक्ति और ज्ञानमें कोई भेद नहीं है। भक्त और ज्ञानी दोनोंको ही सदा सुख प्राप्त होता है। जो भक्तिका विरोधी है उसे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं ही होती। देवि! मैं सदा भक्त के अधीन रहता हूँ और भक्तिके प्रभावसे जातिहीन नीच मनुष्योंके घरोंमें भी चला जाता हूँ, इसमें संशय नहीं है।

भक्तौ ज्ञाने न भेदो हि तत्कर्तु: सर्वदा सुखम्।
विज्ञानं न भवत्येव सति भक्तिविरोधिन:।।
भक्ताधीन: सदाहं वै ततभावाद् गहेध्वपि।
नीचाना जातिहीनाना यामि देवि न संशय:।।

(शि० पु० रु० सं० स० ख० २३। १६-१७ )

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