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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय १७

सती को शिव से वर की प्राप्ति तथा भगवान् शिव का ब्रह्माजी को दक्ष के पास भेजकर सती का वरण करना

ब्रह्माजी कहते हैं- मुने! उधर सती ने आश्विन मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को उपवास करके भक्तिभाव से सर्वेश्वर शिव का पूजन किया। इस प्रकार नन्दाव्रत पूर्ण होने पर नवमी तिथि को दिन में ध्यानमग्न हुई सती को भगवान् शिव ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उनका श्रीविग्रह सर्वांगसुन्दर एवं गौर वर्ण का था। उनके पाँच मुख थे और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र थे। भालदेश में चन्द्रमा शोभा दे रहा था। उनका चित्त प्रसन्न था और कण्ठ में नीलचिह्न दृष्टिगोचर होता था। उनके चार भुजाएँ थीं। उन्होंने हाथों में त्रिशूल, ब्रह्मकपाल, वर तथा अभय धारण कर रखे थे। भस्ममय अंगराग से उनका सारा शरीर उद्भासित हो रहा था। गंगाजी उनके मस्तक की शोभा बढ़ा रही थीं। उनके सभी अंग बड़े मनोहर थे। वे महान् लावण्य के धाम जान पड़ते थे। उनके मुख करोड़ों चन्द्रमाओं के समान प्रकाशमान एवं आह्वादजनक थे। उनकी अंग कान्ति करोड़ों कामदेवों को तिरस्कृत कर रही थी तथा उनकी आकृति स्त्रियों के लिये सर्वथा ही प्रिय थी। सती ने ऐसे सौन्दर्य-माधुर्य से युक्त प्रभु महादेव जी को प्रत्यक्ष देखकर उनके चरणों की वन्दना की। उस समय उनका मुख लज्जा से झुका हुआ था। तपस्या के पुंज का फल प्रदान करने वाले महादेवजी उन्हीं के लिये कठोर व्रत धारण करनेवाली सती को पत्नी बनाने के लिये प्राप्त करने की इच्छा रखते हुए भी उनसे इस प्रकार बोले।

महादेवजी ने कहा- उत्तम व्रत का पालन करनेवाली दक्षनन्दिनि! मैं तुम्हारे इस व्रत से बहुत प्रसन्न हूँ। इसलिये कोई वर माँगो। तुम्हारे मन को जो अभीष्ट होगा, वही वर मैं तुम्हें दूँगा।

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