लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 6

देवकांता संतति भाग 6

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2057
आईएसबीएन :0000000

Like this Hindi book 0

चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

उसे मेरी मौजूदगी का कोई अहसास नहीं हो सका और वह जंगल में एक विशाल दरख्त के पास जाकर ठहर गया। कमला की गठरी दरख्त की जड़ में डाली और दरख्त पर चढ़ता ही चला गया। मैं उस दरख्त से दूसरे दरख्त की आड़ में छुपा यह सब हाल देख रहा था। कुछ ही देर बाद दारोगा दरख्त के ऊपर से एक दूसरी गठरी लादे नीचे आता हुआ दिखाई दिया। मैं समझ गया कि इस गठरी में महारानी कंचन के अलावा कोई न होगा। मैंने अंदाजा लगाया कि जरूर दारोगा ने रास्ते में ही महारानी कंचन को किसी तरह धोखे में डालकर बेहोश कर दिया होगा। और फिर इस गठरी को यहां दरख्त पर बांधकर वह कमला को लेने गया होगा।

दरख्त से नीचे आकर दारोगा ने जनाने कपड़े उतारे, चेहरा भी साफ किया और अपने असली रूप में आने के बाद उसने दोनों गठरियों को अपने कंधे पर लादा और जंगल में एक तरफ को रवाना हो गया। दारोगा वे जनाने कपड़े दरख्त के नीचे ही छोड़ गया था। वे कपड़े मैंने उठा लिए - वे कपड़े भी तुम्हें इस कलमदान में, जिसमें से कि तुम यह सब पढ रहे हो। सबसे नीचे रखे मिलेंगे।''

''क्या वाकई कलमदान में जनाने कपड़े भी मिले थे?'' पिशाच ने बख्तावरसिंह की आवाज में रामरतन से सवाल किया।

''हां!'' रामरतन ने जवाब दिया- ''पिताजी के लिखे अनुसार हमें कलमदान में सबसे नीचे जनाने कपड़े मिले थे।''

''ठीक!'' पिशाचनाथ बोला- ''इससे आगे बंसीलाल ने क्या लिखा है?''

''उन्होंने लिखा है।'' रामरतन फिर बताने लगा- ''वे कपड़े अपने कब्जे में करके मैं फिर दारोगा के पीछे लग गया। वह दोनों गठरियों को संभाले बहुत ही तेजी के साथ बढ़ा चला जा रहा था। उसका रुख खूनी घाटी की तरफ ही था। मैं भी सावधानी के साथ उसके पीछे-पीछे चल रहा था।

तीसरा पहर शुरू होते-होते वह खूनी घाटी में पहुंच गया।

मैं अपने बयान को ज्यादा लम्बा न खींचकर संक्षेप में लिख देता हूं कि वह खूनी घाटी में राजा दलीपसिंह के पास पहुंच गया। उनकी साजिश के मुताबिक घाटी में इस वक्त अकेला दलीपसिंह ही था। दलीपसिंह घाटी में पत्थरों को तराशकर बनाए गए एक कमरे में बैठा था। कमरा शाही शान से सजा हुआ था। छत में एक फानूस और तीन कण्दीलें लटक रही थीं। उनकी रोशनी कमरे की एक-एक चीज को चमकाने में मददगार थी। कमरे के ठीक बीच में एक तख्त था - तख्त के ठीक बीच में एक पीतल का कलमदान रखा था। यह कलमदान काफी बड़ा और मजबूत था। तख्त पर खूबसूरत सफेद चादर बिछी हुई थी। उसी तख्त पर बैठा दलीपसिंह दारू का रसास्वादन कर रहा था। दारोगा को आता देखकर वह खड़ा होकर बोला- ''आओ दारोगा सा'ब----आओ।''

''ज्यादा इंतजार तो नहीं करना पड़ा?'' दारोगा ने कमरे में दाखिल होते हुए कहा।

''नहीं!'' उन दोनों में से एक गठरी खुद दलीपसिंह संभालता हुआ बोला- ''ठीक वक्त पर आए हो। इन्होंने ज्यादा परेशान तो नहीं किया?''

''थोड़ा-सा कमला ने परेशान करने की कोशिश की थी, लेकिन मैंने तिलिस्मी खंजर से इसे ठीक कर दिया।'' कहते हुए दारोगा ने गठरी तख्त पर डाल दी। दलीपसिंह ने भी गठरी तख्त पर डाली और बोला- ''तिलिस्मी खंजर - लेकिन ऐसी नायाब चीज तुम्हारे हाथ कहां से लगी?''

''उसी तिलिस्म से मिली है, जिसका कि मैं दारोगा हूं।'' मेघराज ने जवाब दिया।

''ओह, ठीक है।'' दलीपसिंह इस तरह बोला, मानो थोड़ी देर पहले वह भूल गया था कि मेघराज एक तिलिस्म का दारोगा भी है, बोला- ''खैर.. इन्हें यहां तक लाने में तुम्हें काफी मेहनत करनी पड़ी होगी। आओ - पहले आराम से थोड़ी दारू पी लो - उसके बाद इन्हें भुगतेंगे।''

मेघराज ने उसका यह निमंत्रण स्वीकार कर लिया।

मैं कमरे के बाहर खड़ा आराम से कमरे का हाल देख रहा था और उनकी बातें भी सुन रहा था। कमरे में क्योंकि रोशनी थी और जहां मैं खड़ा था वहां अंधेरा। इसी सबब से मैं तो कमरे का हाल बखूबी देख सकता था, लेकिन वे मुझे नहीं देख सकते थे।

दोनो आमने-सामने बैठकर दारू पीने लगे।

यहां पर उनके बीच होने वाली बातचीत लिख देना बहुत ही जरूरी है - क्योंकि उनकी बातें मुझे चौंकाने वाली होने के साथ-साथ मेरे बहुत ही काम की भी थीं। दारू पीते-पीते अचानक दारोगा की नजर उस कलमदान पर पड़ी। कलमदान के बाहरी हिस्से में नक्काशी करके चार आदमियों की तस्वीरें बनाई गई थीं। हल्के-से नशे में होकर दारोगा ने वह कलमदान उठाया और बोला- ''इस कलमदान पर ये नक्काशी तो बड़ी खूबसूरत है दलीपसिंहजी!''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book