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देवकांता संतति भाग 6

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2057
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

मैं नहीं जान सका कि इसके बाद दारोगा और महारानी कंचन में क्या बातें हुईं, वह चोर दरवाजा कमरे में से खुलकर कहां तक जाता था, इत्यादि। अब मैं, सोच रहा था कि दारोगा की अगली करतूत किस तरह देखूं। मेरे दिमाग में एक तरकीब आई और उसी तरकीब के मुताबिक मैं वहां से रवाना होकर कमला के घर पहुंच गया। चोरों की तरह छुपकर मैं उसके घर की छत पर पहुंचा और रोशनदान पर लटककर उस कमरे में नजर रखने लगा, जिसमें कमला आराम से सो रही थी। मैं जानता था कि दारोगा यहां भी जरूर पहुंचेगा। बिना कमला को ठिकाने लगाए महारानी कंचन की हत्या का इनका षड्यंत्र अधूरा था।

उस वक्त दूसरा पहर कोई आधा ही बीता था कि किसी ने कमला के मकान का दरवाजा खटखटाया।

कई बार की खटखटाहट के बाद दरवाजा खोलने के लिए कमला उठी। मैं रोशनदान से कमरे का सारा हाल बखूबी देख रहा था। कमला के दरवाजा खोलते ही जो इंसान कमरे में आया उसे मैं पहचान गया। वह दारोगा था, लेकिन महारानी कंचन के भेस में।

कमला उसे यहां देखकर चौंकी और बोली- ''महारानी जी, आप! यहां?'' कमला धोखा खा गई थी।

दारोगा ने कंचन बनकर कमला से यही कहा कि मेघराज राजा उमादत्त को धोखे में डालकर खूनी घाटी ले गया है। यहां हम इतना ही लिखना काफी समझते हैं कि दारोगा कमला को भी ठीक उसी तरह धोखे में डालना चाहता था जिस तरह उसने कंचन को डाला था। फर्क सिर्फ इतना था कि पहले वह ये सब बातें कमला बनकर कह रहा था और इस वक्त महारानी कंचन बनकर। लेकिन कमला महारानी कंचन की तरह आसानी से उसके चंगुल में न फंसी। उसे कुछ शक-सा हो गया और वह बोली-- ''लेकिन पहले पहचान का वह लफ्ज तो कहिए रानी साहिबा, जो मैंने आपको बताया था।''

कमला की इस बात पर महारानी कंचन बना दारोगा एक सायत के लिए बुरी तरह बौखला गया। उसे कुछ और नहीं सूझा तो वह बाज की तरह कमला पर झपट पड़ा। लेकिन कमला भी जैसे कम नहीं थी। उसने बड़ी फुर्ती से खुद को बचाया और बोली-

''मुझे पहले ही शक था बदकार - तू दारोगा है और मुझे धोखे में डालना चाहता है।''

''तू ठीक समझी कमला, मैं वही तेरा दिलबर दारोगा हूं।'' दारोगा कुटिलता से मुस्कराता हुआ बोला- ''माना कि तू मेरे धोखे में नहीं आई -- लेकिन जो मुझे करना है वह तो करूंगा ही। धोखे में नहीं आई तो दूसरे ढंग से तुझे ले जाऊंगा।'' कहने के साथ ही उसने अपने बटुए से एक खंजर निकाल लिया। कमला भी अपना खंजर संभालकर उससे मुकाबला करने के लिए तैयार हो गई।

बड़े खतरनाक ढंग से मुस्कराता हुआ दारोगा बोला-- ''तू ऐयार नहीं है कमला, जो मेघराज का मुकाबला करेगी। देख, ये मेरे हाथ में दबा खंजर देख रही है -- इसे तिलिस्मी खंजर कहते हैं। अगर किसी के पास ये हो तो एक साथ सौ दुश्मन भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।'' कहने के साथ ही दारोगा ने खंजर का एक बटन दबाया, बटन दबते ही कमरे के अंदर एक ऐसी चकाचौंध रोशनी हुई कि किसी भी तरह से आंखें खोले रखना नामुमकिन हो गया। उस खंजर से इतनी तेज रोशनी निकल रही थी कि मानो जेठ के महीने का दोपहर का सूरज। आंखें खोलना एकदम नामुमकिन था। मेरी भी आंखें बंद हो गईं। मैं कह सकता हूं कि यही हाल कमला का हुआ होगा! इतनी तेज रोशनी की वजह से आंखे बंद कर लेने के सबब से मैं कुछ भी नहीं देख सका। जब कुछ देर बाद वह रोशनी गायब हुई तो आंखें खोलकर देखा - कमला कमरे की जमीन पर बेहोश पड़ी थी। उसी के सामने खड़ा दारोगा अपना खंजर पीठ में लगा रहा था। कदाचित् आप ये सोच रहे होंगे खंजर की इस चमक से दारोगा की आंखें बंद क्यों नहीं हुईं और हो सकता है कि आप इस भेद से वाकिफ ही हों। फिर भी यहां लिख देना ही ठीक है।

दरअसल तिलिस्मी खंजर की रोशनी की काट खंजर की मूठ से ही होती है। इस खंजर की मूठ खोखली होती है और उसमें एक खास तरह की चूर्ण रूप में दवा भरी रहती है। इस चूर्ण को एक बार आंख में लगा लिया जाए तो पंद्रह दिन तक तिलिस्मी खंजर की चमक आंखों पर किसी भी तरह का असर नहीं करती। जो भी जीव बिना आंख में वह चूर्ण लगाए खंजर की रोशनी का मुकाबला करे, वह किसी भी हाल में आंखें नहीं खोल सकता। यह लिखने की जरूरत नहीं है कि दारोगा पर खंजर की रोशनी का असर क्यों नहीं हुआ। दारोगा ने तिलिस्मी खंजर अपनी कमर में लगाया और बेहोश कमला की गठरी बनाकर बाहर निकल गया। मैं भी जल्दी से रोशनदान से हटा और घूमकर उसके पीछे आ गया। अब मैं उसी तरह से उसका पीछा करने लगा, जैसे कि दारोगा के घर से महारानी के शयन-कक्ष तक किया था।

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