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देवकांता संतति भाग 6

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2057
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''आप बखूबी जांच करवा लें, अगर मैं गुनहगार साबित होऊं तो आपकी हर सजा मुझे कबूल होगी।'' कहने के बाद मैं सीधा उस कमरे से बाहर निकल आया। अब मैंने महसूस किया कि राजमहल में कमला और कंचन के अलावा अभी तक कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं था, जो मुझे किसी तरह से शक की नजर से देखे। मैं आपको बता चुका हूं कि राजमहल के बहुत-से मुलाजिमों को मैं अपने हक में कर चुका हूं। बारादरी में मुझे एक ऐसा आदमी टकराया जिसे मैं पहले ही अपने पक्ष में कर चुका था। उसके करीब पहुंचकर मैंने उसे धीरे-से हुक्म दिया कि वह महारानी कंचन और उसकी दासी कमला पर कड़ी नजर रखे और शाम तक वे जो कुछ भी करें - उसका मुख्तसर हाल मेरे घर पर आकर मुझे बयान करे।''

इसके बाद मैं राजमहल से बाहर निकल आया। मेरे ख्याल से अब आप मेरे बदले हुए हालातों को अच्छी तरह से महसूस कर रहे होंगे। मैंने तो कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि कमला कंचन के इतने निकट होगी कि वह उसे सब कुछ बता देगी। आप ऊपर पढ़ आए हैं कि उस वक्त तो मैं उन्हें अपनी बातों में फंसाकर धोखा दे आया - किंतु यह भी साफ है कि अब उन्हें ज्यादा दिनों तक धोखे में नहीं रखा जा सकता। किसी भी वक्त कंचन मेरे बारे में जीजाजी से बात कर सकती है और उसका बात करना ही गजब हो जाएगा। उधर - कंचन मेरी शादी कमला से करने के लिए कहती है - यह मैं बिल्कुल नहीं चाहता। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि ऐसे हालातों में क्या कदम उठाऊं?

शाम को मेरे पक्षधर उस ऐयार ने आकर खबर दी- ''उनमें से किसी ने भी आज कोई ऐसा खास काम या हरकत नहीं की है जो असाधारण हो। हां, इतना तो है कि आज सारे दिन वे साथ-साथ ही रही हैं। बस - और कोई खास बात नहीं है।''

''क्या तुम उन दोनों की बातचीत सुन सके?''

'जी नहीं!'' उसने जवाब दिया।

''तो तुम्हें उनकी किसी तरह की कोई खास बात पता ही कैसे होगी?'' मैंने कहा- ''ऐसा करो कि इस काम में तुम अपनी मदद के लिए अपने दो-चार साथियों को भी ले लो। सारी रात तुम्हें न केवल उन पर नजर रखनी है - बल्कि उन दोनों की बातें सुनने की भी कोशिश करनी है।''

'जो हुक्म!'' उसने कहा- ''लेकिन इसकी आखिर जरूरत क्या आ पड़ी?'' - ''यह तुम्हें हम नहीं बताएंगे!'' मैंने कहा- ''ऐयार हो तो खुद पता लगाओ। इतना भी हम तुम्हें बताए देते हैं कि उन दोनों की बातें सुनकर ही तुम्हें मालूम हो जाएगा कि हमने तुम्हें उनके पीछे क्यों लगाया है। अगर तुम ही खुद मालूम करो तभी तो हम तुम्हें अच्छा ऐयार मानेंगे - हमसे पूछा तो काहे के ऐयार हुए?''

''ठीक है।'' वह खुश होता हुआ बोला- ''मैं खुद ही आकर आपको बताऊंगा कि आपको मुझे उनके पीछे लगाने की क्या जरूरत आ पड़ी।''

''और हां, क्या आज दिन में वे दोनों या उनमें से कोई राजा उमादत्त से मिलीं?'' मैंने सवाल किया।

''जी नहीं।''

''क्या यह बात पक्की है?'' मैंने कहा- ''क्या कुछ देर के लिए भी उन दोनों में से - कोई तुम्हारी आंखों से ओझल नहीं हुई?'' मेरे इस सवाल का जवाब जब उसने मुझे इंकार में दिया तो मुझे कुछ आराम-सा मिला। इसके बाद वह मेरे हुक्म की तामील करने यानी यह पता लगाने के लिए चला कि मैँने उसे कमला और कंचन के पीछे क्यों लगाया है? उसकी तो अभी तक कोई खबर आई नहीं है और मैं आपको यह बात लिख रहा हूं।

आप मेरे सारे हालातों से वाकिफ हो गए हैं। मैं बंसीलाल के हाथ यह खत आपको भेज रहा हूं। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है कि ऐसे हालातों में मैं क्या करूं? इस खत के जरिए मैं आपकी राय मांगता हूं। इन हालातों का मुकाबला किस तरह किया जाए - यही राय मैं आपसे लेना चाहता हूं। आपसे मेरी दरख्वास्त है कि आप किसी भी तरह के विलम्ब के बिना इन हालातों से निपटने के लिए अपनी राय एक खत में लिखकर बंसीलाल के हाथ फौरन ही भिजवा दें। आप अपने खत के साथ बंसीलाल को फौरन रवाना कर दें। तभी मेरे दिल को आराम मिलेगा। इन हालातों में मैं आपकी राय से ही काम करना चाहता हूं।

आपका अपना -- मेघराज।

''बस!'' रामरतन बोला- ''दारोगा के उस लंबे-चौड़े खत में यही लिखा था।''

''उसके इस खत का दलीपसिंह ने क्या जवाब दिया?'' बख्तावरसिंह बने हुए पिशाचनाथ ने कहा।

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