ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 6 देवकांता संतति भाग 6वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
पिछले सात सालों से मैं राजा उमादत्त का ऐयार हूं। अभी एक ही साल पहले उमादत्त ने कंचन से शादी की है। कंचन एक निर्धन माता-पिता की औलाद है। यह लिखने की भी शायद यहां जरूरत है कि मेघराज उसका भाई है। कंचन और उमादत्त की शादी के एक हफ्ते बाद ही मेघराज और कंचन के बूढ़े माता-पिता अपने मकान की छत के नीचे दबकर मर गए। मेघराज बेसहारा हो गया तो उमादत्त ने उसे न केवल अपना दारोगा मुकर्रर किया - बल्कि एक छोटे-से तिलिस्म का भी दारोगा बना दिया। राजा उमादत्त इससे बहुत प्यार करते हैं और इसे अपने छोटे भाई जैसा मानते हैं। उसकी हिफाजत और सेवा के लिए उमादत्त ने मुझे मुकर्रर किया है। मैं भी सच्चे दिल से इसकी खिदमत करता था। लेकिन आज जबकि उसने मुझे यह खत दिया है, मझे मेघराज की नीयत पर कुछ शक हो रहा है। जिस वक्त मेघराज ने मुझे यह खत दिया, मैं उस वक्त की अपने और उसके बीच की कुछ बातचीत यहां लिख देना मुनासिब समझता हूं।
खत देते वक्त मेघराज ने मुझसे कहा- ''बंसीलाल, तुम यह खत लेकर दलीप नगर चले जाओ और बस खत सीधा दलीपसिंह के हाथ में देना। उनसे कहना कि यह खत वे तुम्हारे ही सामने पढ़ें और फौरन जवाब लिखकर तुम्हें दें।''
मैं हल्के से चौंका, बोला- ''लेकिन दारोगा साब, दलीपसिंह तो हमारे दुश्मन हैं?''
''हमारे दुश्मन क्यों होते - जीजाजी (उमादत्त) के दुश्मन हैं।'' मेघराज ने कहा।
अब मैं पहले से ज्यादा चौंक पड़ा, बोला- ''जो हमारे राजा का दुश्मन है दारोगा सा'ब, वह पहले हमारा दुश्मन है। फिर उनके दुश्मन के पास आपका यह खत भेजना और इस तरह कहना - कुछ सबब समझ में नहीं आता।''
''तुम हमारे मुलाजिम हो बंसीलाल - वही करो जो हम कहते हैं?
अब तो मेरा माथा ठनका। मुझे पहली बार ऐसा लगा जैसे मेघराज के दिल में किसी तरह की कालिख है। मैं बोला-- 'आपकी और राजा सा'ब (उमादत्त) की बात कोई अलग तो है नहीं दारोगा सा'ब। आप भी एक तरह से चमनगढ़ के मालिक हैं। जिनसे राजा सा'ब की दुश्मनी है - आपकी तो उससे खुद ही होगी। फिर आपकी इस बात का सबब समझ में नहीं आया कि दलीपसिंह से राजा सा'ब की दुश्मनी होगी, हमारी नहीं।''
''ज्यादा सवालों में उलझने की कोशिश मत करो, बंसीलाल - जो हुक्म हुआ है उसकी तामील करो।''
''वह तो मैं करूंगा ही, और मेरा फर्ज है ये...!'' मैंने नम्रता से कहा- ''राजा साहब ने मुझे आपकी खिदमत का काम सौंपा है, फिर भला मैं आपकी हुक्मउदूली क्यों कर सकता हूं? लेकिन आपका इस तरह दलीपसिंह को खत भेजना - और यह कहना कुछ ठीक नहीं है। ठीक है कि आप राजा साहब के साले और हमारी रियासत के दारोगा हैं किंतु इस तरह दुश्मन को खत लिखने का सबब समझ में नहीं आया।''
''इसका मतलब है - तुम खत दलीपसिंह के पास ले जाने से इंकार करते हो...?'' मेघराज ने गुर्राकर कहा।
''जी नहीं।'' मैंने कहा- ''लेकिन हां, इस खत का सबब जरूर जानना चाहता हूं।''
''क्या तुम ये कहना चाहते हो कि --- राजा दलीपसिंह से मिलकर - क्या जीजाजी के खिलाफ कोई कदम उठा रहा हूं..!''
असल बात तो ये कि उसकी बातों से मुझे ऐसा ही लगा था। उसका इस तरह से दलीपसिंह को खत भेजना, दलीपसिंह और उमादत्त की दुश्मनी को अपनी दुश्मनी न मानना, खत का सबब पूछने पर उसका मुझ पर उस तरह बिगड़ना इत्यादि ये सब बातें मेरे दिल में इस तरह के ख्याल पैदा कर रही थीं कि जरूर मेघराज के दिल में किसी तरह की कालिमा है। मगर फिर भी भला मैं उससे इतनी साफ बात नहीं कर सकता था। अत: मैं बोला- ''नहीं.. ऐसा तो नहीं है दारोगा सा'ब, लेकिन फिर भी अपनी तसल्ली के लिए मैं खत का सबब पूछना चाहता था।''
''अगर मैं तुम्हें बताने से इंकार कर दूं?'' मेघराज ने मुझसे गुर्राकर कहा।
''तो माफ करें - मैं राजा साहब की जानकारी के बिना ये खत दलीप नगर न ले जा सकूंगा।'' मैंने उसी नम्रता के साथ कहा।
''तुम्हें यह खत ले जाना होगा...।'' मेघराज गुर्राया- ''और बिना उमादत्त की जानकारी के ले जाना होगा। तुम्हारे फरिश्ते भी हमारी हुक्मउदूली नहीं कर सकते। तुम्हारी जानकारी के लिए हम तुम्हें बता दें कि तुम्हारा यह ख्याल एकदम गलत है कि हम राजा उमादत्त के खिलाफ कोई कदम नहीं उठा रहे हैं...। साफ तौर पर सुन लो - हम इस खत के जरिए से राजा उमादत्त के खिलाफ---- दलीपसिंह से मिलना चाहते हैं...।'' उसके ये अलफाज सुनकर तो मेरे पैरों-तले से जैसे जमीन ही निकल गई। मैंने तो कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि मेघराज इतने साफ ढंग से मुझसे ऐसी बात कह देगा। मैं मेघराज के चेहरे की ओर देखता का-देखता ही रह गया। एक बार को तो मुझे यकीन न आया कि जो मेरे कानों ने, सुना है, मेघराज ने वही कहा है। वह मेरी आंखों में आंखें डाले मुझे घूर रहा था। बोला- ''समझे कुछ?''
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