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देवकांता संतति भाग 6

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2057
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

उसके इन लफ्जों के साथ मेरी चेतना जैसे एक झटके से वापस आई, बोला- ''तब तो आप भी कान खोलकर सुन लीजिए कि मैं आपका नहीं राजा उमादत्त का मुलाजिम हूं - आप हमारी रियासत के गद्दार दारोगा हैं और मैं आपको गिरफ्तार कर सकता हूं।''

''इस तरह का कोई भी कदम उठाने से पहले एक बार तुम अपने उस गुनाह को याद कर लेना जो तुमने पंद्रह साल की उम्र में किया था।'' मेघराज ने कहा- ''कहीं ऐसा न हो कि उमादत्त को मेरे बारे में पता लगने से पहले ही तुम्हारे बारे में पता लग जाए।''

उसके ये लफ्ज सुनकर तो मेरी अन्तरात्मा तक दहल उठी। मेरी समझ में न आया कि उसे मेरे इस गुनाह के बारे में कैसे पता लगा। मेरे मुंह से एक भी लफ्ज न निकला..। अवाक्-सा मैं उसका मुंह ताकता रह गया। वह कुटिलता से मुस्कराता हुआ बोला-- ''मुझे मूर्ख मत समझो, बंसीलाल - सबकुछ सोच-समझकर ही मैंने इस काम के लिए तुम्हारा चुनाव किया है। मैं अच्छी तरह जानता हूं कि तुम मेरे हुक्म को नहीं टाल सकते। टालने का अंजाम तुम जानते हो क्या होगा?''

वाकई मेघराज की यह बात सही थी...। मैं उसके सामने ऐसा हो गया मानो उसने मेरे हाथ पांव जुबान और दिमाग सबकुछ अपने कब्जे में कर लिए हैं। इस गुनाह की याद आने के बाद और यह पता लगने के बाद कि मेरे उस गुनाह को मेघराज जानता है - मेरे अंदर उसके हुक्म को टालने की ताकत न थी। बातों-बातों में उसने कई बार मुझे उस गुनाह की याद दिलाई, मैं उसका हुक्म मानने को मजबूर हो गया था - और फिर इस तरह मैं मजबूरी में ही उसका विश्वासी ऐयार बन गया था।

अपने उस गुनाह को जिसकी धमकी मुझे इस वक्त मेघराज ने दी थी - मैं यहां नहीं लिख पा रहा हूं क्योंकि ये अलफाज लिखते हुए मेरी कलम कांप उठेगी। यहां आप केवल इतना ही समझ लें कि मेरी जिंदगी का यह बहुत ही घृणित वाकया है और उसे किसी भी हालत में मैं - दुनिया के सामने नहीं आने देना चाहता था। उसी गुनाह के खुलने के डर से मैं एक गुनाह और करने लगा।

वह था - मेघराज के लिए काम करना।

मगर - मैंने उसका काम करने में थोड़ी हेर-फेर जरूर कर दी। मैं उसका खत लेकर निकल पड़ा - और फिर घोड़े पर दलीपनगर की ओर चल दिया। मैं बराबर इस बात के प्रति सावधान था कि कहीं कोई मेरा पीछा न कर रहा हो...। अब जब मुझे पूरी तरह तसल्ली हो गई कि कोई मेरे पीछे नहीं है तो मेरे दिमाग में आया कि मेघराज को कितना यकीन है कि अपने उस गुनाह के खुलने के डर से मैं उसके साथ गद्दारी न कर सकूंगा।

और वाकई - उसका यह यकीन ठीक ही था। उसकी करतूतों की खबर उमादत्त तक पहुंचाने की ताकत अब मुझमें नहीं थी। लेकिन फिर भी मैं थोड़ी-सी हेर-फेर कर ही गया। यह यकीन करने के बाद मुझ पर किसी की नजर नहीं है एक जगह जंगल की झाड़ियों में छुपकर मैंने वह खत पढ़ लिया। खत का मजमून बता रहा था कि दारोगा किसी मामले में उमादत्त के खिलाफ दलीपसिंह की मदद चाहता है।

मेरा ध्यान दारोगा के खत की एक लाइन पर जम गया। लाइन थी - आपके लिए लिखा गया यह मेरा पहला ही खत है...।

बस - इसी लाइन का मैंने फायदा उठाया..। मैंने सोचा जब यह मेघराज का दलीपसिंह के लिए पहला खत है - तो दलीपसिंह को भला मेघराज की लिखाई के बारे में क्या पता होगा? मैंने अपने दिमाग में आए इस ख्याल का लाभ उठाया और मेघराज के खत की नकल अपनी लिखाई में कर ली...। उसी का फल है कि मेघराज के हाथ का लिखा खत आप इस कागज से पहले पढ़ आए हैं। यह खत मैंने अपने पास रख लिया और इसी मजमून का अपने हाथ का लिखा खत मैं लेकर राजा दलीपसिंह के पास चला गया। अपनी और दलीपसिंह की बातचीत का भी थोड़ा-सा भाग - मुझे यहां पर लिख देना मुनासिब जान पड़ रहा है। मैंने वहां जाकर तखलिए में राजा दलीपसिंह से कहा- ''चमनगढ़ के दारोगा सा'ब ने आपके लिए यह खत भिजवाया है।''

''चमनगढ़ के दारोगा...।'' कदाचित् दलीपसिंह इसलिए चौंका था - क्योंकि उमादत्त से तो उसके संबंध ही अच्छे नहीं थे।

'जी हां।'' कहते हुए मैंने वह खत दलीपसिंह की ओर बढ़ा दिया। दलीपसिंह ने जब वह खत पढ़ा तो पढ़ते-पढ़ते कई भाव उसके चेहरे पर उभर आए। कई बार खत पढ़ने के बाद दलीपसिंह ने पूछा- ''तुम्हारा नाम क्या है?''

'बंसीलाल।'' मैंने बता दिया।

'क्या तुम्हें मालूम है कि इस खत में क्या लिखा है?'' दलीपसिंह का अगला सवाल।

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