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देवकांता संतति भाग 4

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2055
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''अबे मेरा मतलब...।''

''अब मतलब-वतलब को गोली मारो, गुरु।'' काफी देर से शांत बैठे हुए विकास के दिमाग में भी शरारती कीड़ा कुलबुलाया और बोला- ''अब चाहे कुछ भी कहो, लेकिन अब तुम्हें ब्रह्मचारी कहलाने का हक नहीं है।''

''क्यों नहीं है बे?'' विजय ने एकदम उसकी तरफ आखें निकालीं।

''जिसकी दो-दो संतानें हों गुरु, वह ब्रह्मचारी हो ही नहीं सकता।'' विकास बोला- ''गौरवसिंह और वंदना आपकी ही संतानें हैं, यह न केवल साबित हो चुका है, बल्कि आप भी मान चुके हैं। अब तो हम जल्दी ही अपनी आण्टी से मिलना चाहते हैं।''

अभी विजय कुछ कहना ही चाहता था कि धनुषटंकार ने अपने हाथ से लिखा हुआ कागज विजय को थमा दिया। उसमें लिखा था- 'मैं, धनुषटंकार गीता को हाजिर-नाजिर रखकर गुरु विकास की बातों का समर्थन करता हूं।''

(प्रेरक पाठको, हम जानते हैं कि संतति को हमारे बहुत से ऐसे नये पाठक पढ़ रहे हैं, जिन्होंने हमारे पिछले उपन्यास नहीं पढ़े। जो पाठक हमारे नियमित हैं, वे तो जानते हैं कि धनुषटंकार क्या चीज़ है। लेकिन नये पाठकों के लिए हम लिख देते हैं धनुषटंकार एक बंदर है... बेशक उसका जिस्म बंदर का है, लेकिन उसमें दिमाग एक आदमी का है। आदमी का दिमाग बंदर के जिस्म में फिट करने का कमाल एक वैज्ञानिक ने किया था। यह बात विस्तार से आप हमारे पिछले उपन्यास 'मैकाबर सीरीज' में पढ़ सकते हैं। यह बंदर आदमी की तरह सोचता है, लिखता है और क्या-क्या कर्तब दिखाता है, यह आप देवकाता संतति के आगे के बयानों में खुद ही देखेंगे। धनुषटंकार विजय को स्वामी और विकास को गुरु मानता है)

विजय ने जब धनुषटंकार के हाथ का लिखा कागज पढ़ा तो एकदम बोला- ''देख बे ओ बंदर की औलाद...!''

और... विजय अभी अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि धनुषटंकार उस पर एकदम झपट पड़ा। यहां यह बता देना भी आवश्यक है कि बंदर धनुषटंकार को अगर कोई बंदर कह दे तो प्रसाद के रूप में अपना एक थप्पड़ कहने वाले के गाल पर रसीद कर देता है और इस समय भी उसका विजय पर झपटने का कोई और सबब नहीं था। मगर...!

विजय आखिर विजय था।

वह पहले से ही जानता था कि धनुषटंकार यह हरकत करेगा, इसीलिये वह फुर्ती के साथ अपने स्थान से हट गया। झोंक में धनषटंकार सामने बैठे विकास की गोद में गिरा और विकास ने उसे पकड़ लिया। वह विकास के हाथों में से निकलने के लिए पूरी ताकत लगा रहा था, किन्तु ये दूसरी बात है कि वह सफल नहीं हो रहा था, वह क्रोधित दृष्टि से विजय को घूर रहा था।

''अबे मेरे बाप!'' विजय ने उससे डर जाने का अभिनय करते कहा... 'गलती हो गई, माफ कर दे।''

और... धनुषटंकार एकदम ऐसे ढीला पड़ गया, मानो उसका गुस्सा शांत हो गया हो। उसने विकास की गोद में बैठे-ही-बैठे विजय की तरफ अपना दायां हाथ बढ़ा दिया और विजय ने भी उसका मतलब समझकर हाथ बढ़ा दिया। हाथ बढ़े और मिले... उसी समय धनुषटंकार विकास की गोद में से उछलकर विजय के गले में बांहें डालकर झूल गया... न सिर्फ झूल गया, बल्कि उसने विजय के गाल पर दो-तीन चुंबन भी जड़ दिये।

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