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देवकांता संतति भाग 4

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2055
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

इस तरह से विकास, रघुनाथ, रैना, निर्भयसिंह और ब्लैक-ब्यॉय को यह यकीन आ गया कि गौरवसिंह और वंदना ने उन्हें जो कहानी सुनाई है वह सच है। वास्तव में विजय पिछले जन्म का देवसिंह है गौरव तथा वंदना उसकी संतानें हैं। अब सभी की इच्छा थी कि वे सब गौरव के साथ वहां चलें, जहां उन्हें गौरव ले जाना चाहता है। यही निश्चय करके वे सब लोग अगले दिन उस भूत-प्रेत विशेषज्ञ के यहां से छुट्टी लेकर राजनगर पहुंचे। राजनगर में वे सीधे रघुनाथ की कोठी पर पहुंचे थे। वहां पहुंचकर धनुषटंकार भी उन्हें मिल गया था। विकास ने गौरव से पूछा था कि वह यहां तक कैसे पहुंचा, तो उसने जवाब दिया था क्रि वह नाव से आया है। उसका जवाब सुनकर विकास यह सोचकर मुस्कराया था कि इस आधुनिक युग में गौरव ने इतनी लम्बी यात्रा एक नाव से की है। यात्रा के लिए ब्लैक ब्वाय सीक्रेट सर्विस के चीफ की हैसियत से स्टीमर का प्रबंध करने चला गया था। ठाकुर साहब भी अपनी छुट्टियां मंजूर कराने चले गये थे। रैना रसोईघर में रास्ते के लिये आलू के परांठे बना रही थी। शाम के समय विजय की भी नींद टूट गई और वह ठीक तरह जागा, मानो साधारण नींद से जागा हो। लिहाजा इस समय विकास,विजय, धनुषटंकार, रघुनाथ, गौरव और वंदना एक कमरे में बैठे बातें कर रहे थे। उनकी बातें यात्रा के ही संबंध में थीं और गौरव उन्हें कुछ जरूरी बातें समझा रहा था। हालांकि छुट्टियां मंजूर कराने के सुपर रघुनाथ को भी जाना था, किन्तु ठाकुर साहब ने यह काम अपने अधीन ले लिया था। वे कहकर गये थे कि उसकी छुटिटयों की मंजूरी भी वे खुद ही ले आयेंगे। काफी देर तक तो गौरवसिंह यात्रा के बारे में ही बताता रहा, जब उसकी बातें सुनते-सुनते विजय बोर हो गया तो अचानक बोला-

''माई डियर सन, यानी मेरे प्यारे बेटे।'' विजय ने एकदम यह सबकुछ इस ढंग से कहा था कि सभी चौंककर उसकी तरफ देखने लगे, हां हमारे इस वाक्य का अपवाद निःसंदेह धनुषटंकार था, क्योंकि वह शराब पीने और अपने कीमती सिगार के कश लगाने में आवश्यकता से कुछ अधिक ही व्यस्त था। उन सबकी नजर अपने चेहरे की ओर खींचकर विजय इस तरह चुप हो गया, मानो उसने कछ कहा ही नहीं था। अगर उसकी हरकत इतने पर भी बस होती तो भी गनीमत थी, किन्तु उस समय रघुनाथ और विकास बिना मुस्कराये नहीं रह सके, जब उन्होंने विजय के चेहरे पर ऐसे भाव देखे जो केवल मूर्ख सम्राट के चेहरे पर ही पाये जाने चाहिये। अलबत्ता गौरवसिह और वंदना हक्के-बक्के-से उसका चेहरा देख रहे थे।

''क्या बात है, पिताजी... आप इस तरह से क्या कह रहे हैं?'' वंदना ने पूछा।

''इसको कहते हैं चकर-चकरघिन्नी का नाटक।'' विजय अपने ही अन्दाज में जल्दी-जल्दी पलकें झपकाता हुआ बोला।

''चकर-चकरघिन्नी?'' चौंककर गौरवसिंह ने कहा- ''ये क्या बला होती है, पिताजी?'' - ''अभी बहुत-सी ऐसी बलायें हैं बेटे... जो तुम्हारी अक्लदानी के पिंजरे से बाहर हैं।'' विजय बोला- ''आज तक हम यही समझते थे कि हमारी अक्लदानी दुनिया में सबसे बड़ी है और हमने सारी बलाओं को इसमें कैद करके ताला लगा दिया है, लेकिन तुम्हारे दर्शन होते ही हमारी गलफहमी गधे के सींग बन गई, क्योंकि तुम दोनों (गौरव और वंदना) ऐसी बलायें बनकर हमारे सामने आये कि दिमाग का कीमा बन गया। तुमने आते ही कुछ ऐसी-ऐसी ताजा खबरें सुनाई कि हमारे दिमाग में प्रेस की मशीन लग गई और दनादन अखबार छपने लगे। हम, यानी कुंआरे और बाल-ब्रह्मचारी आदमी से तुमने आकर कह दिया कि तुम गप्पी नहीं, बल्कि सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की औलाद हो।''

''ये बात तो गलत है पिताजी-औलाद तो हम आप ही की हैं।'' गौरवसिंह ने फौरन बात कैच करके कहा।

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