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देवकांता संतति भाग 4

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2055
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

दूसरा बयान


आज जब हम नया बयान लिखने बैठे हैं तो हमें हिचकी आ रही है। हमने इसका सबब जानने की कोशिश की तो पता लगा कि हमारे प्रिय पात्र विजय, विकास इत्यादि याद कर रहे हैं। कदाचित् वे हमसे खफा हैं, क्योंकि हमने काफी कथानक लिखने के बाद भी उनका नाम नहीं लिया है। वैसे अब तक हम विजय के बारे में ही लिखते रहे हैं, मगर उसका नाम देवसिंह रखना पड़ा, खैर अब हम देवसिंह के इस जन्म, यानी विजय से सम्बन्धित हाल लिखते हैं। हमारे पाठकों को भली प्रकार याद होगा कि हमने उन्हें पहले भाग के अन्तिम बयान में दिखाया था, फिर भी हम पहले भाग के अन्त का थोड़ा-सा सारांश लिख देते हैं। इसमें उस कथानक का बयान किया गया है, जब विजय, विकास, रघुनाथ, रैना, ब्लैक-ब्बॉय, ठाकुर निर्भय सिंह, गौरव और वंदना मिल जाते हैं। गौरव और वंदना विजय की ही सन्तानें हैं, यह विश्वास दिलाने के लिए वंदना सुबूत के तौर पर एक कागज दिखाती है जिस पर उसी खण्डहर का चित्र बना हुआ है, जो विजय स्वप्न में देखता था... वंदना बताती है कि यह तस्वीर हमारे पिता ने आज से साठ वर्ष पूर्व उस समय बनाई थी, जब मेरे पिता देवसिंह थे... उस तस्वीर को देखते ही विजय मानो एक बार पुनः अपने मस्तिष्क का सन्तुलन खो देता है। और उसी तरह दीवाना-सा होकर कांता-कांता चीख पड़ता है।

बस... यह संतति के पहले भाग का अंत था... उससे आगे का दिलचस्प कथानक हम आज लिखने बैठ रहे हैं। अभी तक का  कथानक पढ़कर यह तो आप समझ ही होंगे कि ऐयार लोग विकास की तरह मारा-मारी पर विश्वास रखते बल्कि सारा काम दिमागी कसरत से करते हैं। अब हम आगे के बयानों में आपको विकास और इन पुराने ऐयारों की बड़ी रोमांचक टक्कर दिखा रहे हैं। अभी तक विकास क्योंकि असली चक्कर नहीं समझ पाया है, अत: अभी संतति में आपने उसका असली रूप नहीं देखा है... किन्तु, अब जल्दी ही वह स्थान आने वाला है, जब विकास अपने असली रूप में होगा।

मुख्तसर यह कि जैसे ही विजय वंदना द्वारा उस खण्डहर को देखकर अपने दिमाग का संतुलन खोता है, वैसे ही एक बार पुन: सब घबरा जाते हैं। विजय एकदम पागल-सा होकर अपने स्थान से खड़ा हो जाता है। उसी समय गौरवसिंह उछला और विजय के सामने आ गया। उसने जल्दी से अपने ऐयारी के बटुए से एक सफेद बुकनी निकाली और फुर्ती के साथ विजय के चेहरे पर फेंक दी। विजय को एकदम दो-तीन छीके आयीं और वह बेहोश होकर कमरे के फर्श पर गिरने ही वाला था कि झपटकर विकास ने उसे बांहों में सम्भाल लिया। गौरवसिंह ने अपने हाथ झाड़ते हुए कहा-

''अब इन्हें आराम से लिटा दीजिये... इन्हें सुलाने की दवा अब यही एकमात्र बुकनी है। अगर ये बिना इस बुकनी के प्रभाव के सोये तो इन्हें पुन: वही स्वप्न चमकेगा। इसी बात का ख्याल करते हुए हमें हमारे गुरु ने यह बुकनी दी थी। उन्होंने कहा था कि अगर देवसिंह (विजय) सो न सके तो परेशान हो जायेंगे--अत: उन्हें इस बुकनी के प्रभाव से सुलाया जाये, जिससे उन्हें सपना नहीं चमकेगा। अब ये अपनी नींद पूरी कर सकेंगे।,,

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