ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 4 देवकांता संतति भाग 4वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
उसकी इस प्यारी हरकत पर सभी के होंठों पर मुस्कान दौड़ गई। किन्तु... अगले ही क्षण 'चटाक' की आवाज कमरे में गूंजी और धनुषटंकार का बायें हाथ का रहपट विजय के गाल पर पड़ा। विजय के साथ-साथ सभी चौंक पड़े, मगर तब तक तो धनुषटंकार विजय की छाती से उछलकर कमरे के रोशनदान पर जा बैठा था।
''अबे ओ खानदानी बंदर!'' विजय एकदम बौखलाकर बोला- ''नीचे उतर साले।''
लेकिन... धनुषटंकार बड़े आराम से रोशनदान पर बैठा हुआ उसे जीभ से चिढ़ा रहा था। कुछ देर तक तो विजय बौखलाया-सा अजीब ढंग से चीखता रहा- लेकिन उधर रोशनदान पर बैठे हुए धनुषटंकार ने अपने शानदार कोट की जेब से सिगार निकालकर इस तरह सुलगाया, मानो विजय की आवाज उस तक पहुंच ही नहीं रही हो। -- ''तुम साले गुरु-चेले, दोनों एक से।'' विजय बौखलाने की अजीब एक्टिंग कर रहा था।
सुपर रघुनाथ आराम से बैठा हुआ विजय की बौखलाहट का आनन्द ले रहा था।
''उसे छोड़ो गुरु।'' विकास बोला- ''आज हम तुम्हें एक प्यारी-प्यारी दिलजली सुनाते हैं।''
विजय इस तरह सिर पकड़कर धम्म से सोफे पर बैठ गया मानो परेशानियों की हद तक पहुंच गया हो। उसी समय रसोई में से रैना ने प्रवेश किया। विजय को इस हालत में देखकर वह बोली - ''क्या बात है भैया..... परेशान-से क्यों हो?''
'रैना बहन!'' विजय ने सिर उठाकर उसकी ओर देखते हुए कहा- ''हमारे दिमाग का तो दीवाला पिट गया है।''
''छोड़ो भी भैया!'' रैना मुस्कराती हुई बोली- ''देखो मैं तुम्हारे लिए गर्म-गर्म आलू के परांठे बनाकर लाई हूं। तुम्हें बहुत पसंद है ना।''
रैना के इस वाक्य के साथ ही विजय की दृष्टि स्टील की उस थाली पर गई... जो रैना के हाथ में थी। उसमें आलू के चार ताजे परांठे थे.. उनमें से भाप अब भी उठ रही थी। सिके हुए लाल परांठे देखते ही विजय के मुंह में पानी भर आया। वह सबकुछ भूलकर बोला- ''वाह, रैना बहन.. तुम्हें हमारा कितना ख्याल है!''
''हां साले.. तुम तो हमेशा से ही इस घर का माल हराम का समझकर खाते रहे हो।'' रघुनाथ ने पहली बार अपनी चोंच खोली। इधर ये दोनों भिड़े हुए और उधर!
विकास ने रोशनदान पर बैठे हुए धनुषटंकार को एक खास संकेत किया.. संकेत का मतलब समझते ही वह रोशनदान से तेजी के साथ झपटा। अचानक रैना के कंठ से एक चीख निकल गई.. किन्तु उसे किसी तरह कोई खतरा नहीं था। क्योंकि धनुषटंकार ने केवल इतना ही किया था कि थाली में से सारे परांठे उठाकर वह पुन: उसी रोशनदान पर जा बैठा था।
विजय फिर चीखता सा अपनी जगह से उठा।
बौखलाहट में वह चीखा... मगर वहां बैठा हुआ धनुषटंकार परांठे खाने में ऐसा मशगूल था कि जैसे विजय की कोई भी आवाज उसके कानों तक नहीं पहुंच रही हो। सभी ठहाका लगाकर हंस पड़े.. रैना, गौरव और वंदना भी।
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