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देवकांता संतति भाग 4

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2055
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

रघुनाथ लड़खड़ाकर दूर जा गिरा और उसने विकास के शब्द भी सुन लिए। और अब खुद रघुनाथ में ताकत नहीं थी कि वह विकास को रोकता। वह जानता था... इस वक्त विकास खूनी भेड़िए से भी ज्यादा खतरनाक है। ऐसे समय पर वह पागल हो जाता है.. एक तरफ को खड़ा हुआ बहका-सा वह भी देखता रहा और वंदना... वह भी देख रही थी... विकास का यह दरिन्दगी-भरा रूप!

उधर... फर्श पर पड़ा हुआ रोशनसिंह... उसने देखा... एक लम्बा साया... बेहद लम्बा... उसकी तरफ बढ़ा। उसे लगा... जैसे साक्षात् मौत उसकी तरफ बढ़ रही हो। उस गरीब को इतना तो पता लगा कि उसे लम्बे यमराज ने अपने दोनों हाथों में दबोचकर सिर से ऊंचा उठा लिया। हवा में उसे घुमाया और फिर वह इस तरह फर्श पर आकर गिरा, जैसे किसी ने बहुत ऊंचे पहाड़ पर से उसे नीचे देकर मारा हो। उसके सारे अंजर-पंजर ढीले हो गए और उसकी आंखों के सामने काला पर्दा खिंच गया हो। बेहोश होते समय वह शुक्र मना रहा था कि अच्छा हुआ कि वह बेहोश हो रहा है... वह इस लम्बे-से लड़के को अपनी आखों से तो अपनी पिटाई करते हुए नहीं देखेगा। हकीकत यह थी कि वह इस लम्बे लड़के से बुरी तरह घबरा गया था। किन्तु उस समय उसकी सारी आशाओं पर पानी फिर गया, जिस समय उसे होश आया। होश आते ही उसने सबसे पहले लम्बे लड़के को देखा। किन्तु यह देखकर वह दंग रह गया कि इस बार वह लड़का उसे उलटा दिख रहा था... यानी टांग ऊपर, सिर नीचे। मगर थोड़ी ही देर बाद उसे पता लगा कि वह बिल्कुल गलत सोच गया है... हकीकत ये है कि वह लड़का तो उलटा नहीं खड़ा था, बल्कि वह खुद ही हवा में उलटा लटका हुआ है। उसके सामने यमराज खड़ा था... विकास के चेहरे पर मौजूद वहशीपन देखते ही रोशनसिंह की अगली-पिछली पांच पुश्तों तक की रूहें कांप उठीं। उस वक्त तो उसकी आखें, पुन: बन्द हो गईं, जब उसने एक लम्बा कदम उसकी तरफ बढ़ाया। उसी वक्त रोशनसिंह के कानों से एक गुर्राहट टकराई- ''बोलो.. कौन हो तुम?''

रोशनसिंह ने न आखें खोली, न मुंह!

परन्तु!

अगले ही पल वह मुंह खोलकर चीखने पर विवश हो गया, उसे लगा... जैसे बिजली का कोई नंगा करेंटयुक्त तार उसकी नाभी से गले तक स्पर्श करता हुआ निकल गया हो। परिणामस्वरूप होने वाली पीड़ा इतनी असहनीय थी कि वह इस तरह चीख पड़ा... मानो हलाल होते समय बकरा।

और ... गलती उस बेचारे की भी नहीं थी। हलाल तो वह हो ही रहा था। मुंह के साथ-साथ वह आंखें, खोलने पर भी मजबूर हो गया। आंखे खुलते ही उसने देखा... यमराज के हाथ में एक ब्लेड था और वह भी खून से लथपथ... उसकी उंगलियां भी से सनी हुई थीं। रोशनसिंह समझ गया कि वह करेंट-सा क्यों क्यों दौड़ा था? यह समझते ही बरबस ही उसके मुंह से एक चीख और निकल गई, लेकिन यमराज की आवाज उसने बखूबी सुनी- ''सारे हथियार तो तूने सागर में फेंक दिए, लेकिन ये बड़ा हथियार तो मेरे हाथ में है... बोल कौन है तू... और अजय अंकल कहां हैं?''

दर्द से बिलबिलाने के कारण इस बार भी वह उसके सवाल का जवाब नहीं दे सका।

और अंजाम... इस बार विकारा ने ब्लेड से उसकी नाक काट ली।

उफ!

रघुनाथ ने देखा तो कांपने लगा... वंदना ने देखा तो देखकर आखें बन्द कर लीं। उसने रोशनसिंह की नाक को खून से लथपथ फर्श पर फुदकते हुए देखा था। साथ ही उसकी बन्द आंखों के सामने इस समय विकास का दुर्दान्त चेहरा घूम गया। अपना कलेजा पकड़कर वह कांपने लगी। ऐसा वीभत्स दृश्य और इतने खूंखार इंसान पर वह अपनी दृष्टि कायम नहीं रख सकी... आंखें बन्द करके बुदबुदाई... 'दरिन्दा!'

लेकिन विकास तो उसकी कल्पनाओं से भी आगे था। रोशनसिंह उस मुर्गी की तरह चीख रहा था, जिसके दोनों पैर किसी धागे से बांधकर कहीं लटकाकर आधी गरदन काटकर छोड़ दिया हो। वह चीखे जा रहा था... रह-रहकर।

''बोल कौन है तू?'' एक बार फिर गरजा विकास।

''र.. र.. रो... श. न. सिं.. ह...!'' अपनी चीखों के बीच बड़ी मुश्किल से कह पाया गरीब।

उसका नाम आखें बन्द करके खड़ी वंदना के कानों में भी पड़ा और उसने झट आंखे खोल दीं, बोली- ''रोशनसिंह--उमादत्त के ऐयार!''

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