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देवकांता संतति भाग 4

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2055
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''तुम चुप रहो।'' गुर्राकर विकास ने उसकी तरफ देखा- ''अपने बारे में सबकुछ यही बताएगा।'' जब विकास ने अपनी भेड़िए जैसी आंखों से उसकी तरफ देखा तो उसे लगा जैसे उसका दिल बैठता जा रहा है। उन आग उगलती आंखों का एक क्षण तक भी सामना नहीं कर सकी। उसे लगा... जैसे ये आखें उसे निगल जाएंगी। लड़के ने अपनी जलती हुई आखें पुन: रोशनसिंह के बेहरे पर जमा दीं और गुर्राया- ''क्या हमारे बीच तुम्हारा और भी कोई साथी है?''

बेचारा... रोशनसिंह... वह दर्द से इस बुरी तरह से बिलबिला रहा था कि चाहकर भी जवाब नहीं दे सका।

और... विकास को भला इतनी बर्दाश्त कहां... जल्लाद का हाथ चला... रोशनसिंह कें दोनों कान नीचे गिरकर तड़पने लगे।

''वि.. वि.. कास!'' कांपके स्वर में वंदना कह उठी- ''ऐयार को मारते नहीं है।'

'तुम नहीं जानतीं कि विकास बीच में बोलने वाले की बोटियां नोच डालता है।'' वंदना की ओर देखकर विकास शेर की भांति दहाड़ उठा। वंदना को.. जैसे एकदम अपनी भूल का अहसास हुआ। घबराकर उसने मुंह फेर लिया। वह सोच भी नहीं सकती थी कि इतना मासूम और भोला-सा नजर आने वाला लड़का इतना ज्यादा खूंखार भी हो सकता है। कामदेव सरीखा विकास... वक्त पड़ने पर दुनिया का सबसे बड़ा जल्लाद भी बन सकता है। उसे विकास के साथ गुजरे वे क्षण याद आए... विकास का हंसना-हंसाना, मजाक, भोलापन, मासूमियत, दिलजली सुनाना।

लेकिन... इस वक्त जो दरिन्दा सामने खड़ा है, क्या वह भी विकास है? नहीं... कभी नहीं।

राक्षस क्या कर रहा है... यह वह नहीं देख सकी। उसने मुंह फेर लिया था... परन्तु उसके कान में पिघले हुए सीसे की तरह रोशनसिंह की दर्दनाक चीख उतरती जा रही थी। साथ ही मौत को भी थर्रा देने वाली विकास की आवाज- ''बोलो... क्या तुम्हारा और कोई साथी हमारे बीच है?''

''हां...!'' वंदना ने दर्द से तड़पते हुए रोशनसिंह की आवाज सुनी- 'गोवर्धनसिंह है।''

'कहां है किस मेकअप में?'' विकास की गर्जना जैसे सुनने वालों के कानों के पर्दों को फाड़ देना चाहती थी।

''ठ.. ठा.. कु.... र.. नि.. .र्भ.. य...!''

और इन शब्दों साथ ही उसकी आवाज बन्द हो गई। वंदना का दिल धक् रह गया। न चाह्ते हुए भी उसने गर्दन मोड़ी। नेत्र खोले। सामने देखा रोशनसिंह का जिस्म ढीला पड़ चुका था। चीखें शान्त हो गई थीं। वह हमेशा के लिए दर्द की छटपटाहट से मुक्ति पा चुका था। रोशनसिंह मर चुका था। वंदना उलटी लटकी हुई लाश को देख रही थी... उसका दिल बैठता जा रहा था। कितना भयानक दृश्य था!

विकास ने एक क्षण उस लाश को घूरा... फिर एक नजर वंदना और रघुनाथ पर डाली और पलटकर तेज कदमों के साथ चालक-कक्ष की ओर बढ़ गया। उसके चेहरे से अभी तक पशुता के लक्षण खत्म नहीं हुए थे। चालक-कक्ष में पहुंचते ही बंदर धनुषटंकार ने उसे एक कागज थमा दिया। उस पर लिखा था-

'क्या बात है गुरु... ये मैं किस कमरे की चीखें सुन रहा था?' विकास ने पढ़ा... पढ़कर कागज को जोर से मुट्ठी में भींच लिया। गुर्राया- ''तुम चुपचाप स्टीमर चलाओ।''

धनुषटंकार विकास का असली चेला था। गुरु के चेहरे पर पशुता... उसके तेवर... दहकता चेहरा... जलती आखें। इन सबका मतलब वह बहुत अच्छी तरह जानता था। वह जानता था कि इन सबका मतलब है... नरसंहार... विनाश, मौत... और... खून से खेलता विकास। अपने-पराए की चिन्ता किए बिना दुश्मनों को मौत के घाट उतारने में व्यस्त विकास। वह चुप हो गया, जैसे भीगी बिल्ली।' विकास ऐसे मौकों पर किसी को ज्यादा वक्त कहां देता था? उसने ट्रांसमीटर ऑन किया, गुर्राया- ''हैलो।''

'यस प्यारे दिलजले... विजय दी ग्रेट स्पीकिंग।''

गुरु! विकास की आवाज में भयानकता का स्पष्ट पुट था... अपने स्टीमर की रफ्तार धीमी करो... मैं वहां आना चाहता हूं।''  - 'क्या बात है प्यारे... तुम्हारी आवाज का बैलेंस बिगड़ा हुआ है।'' कदाचित विजय कुछ भांप गया था।

''हमारे स्टीमर पर बहुत जबरदस्त दुर्घटना हो गई है गुरु।'' विकास बोला- ''आपके स्टीमर पर भी हो सकती है... मैं आपसे कुछ बातें करना चाहता हूं।''  - 'क्या बात है प्यारे कुछ बताओ...।''

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