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देवकांता संतति भाग 4

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2055
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

यह उसकी जीवित तारा नहीं थी, बल्कि तारा की लाश  थी... लाश! उसने देखा... तारा का सारा जिस्म रक्त-रंजित था। उसके हाथ भी तारा के खून से रंग गए थे। शामासिंह समझ गया कि गिरधारीसिंह ने तारा के बेहोश शरीर को घोड़े पर भागते-ही-भागते अपनी कटार से गोद डाला है। कई-पल तक तो वह हक्का-बक्का-सा तारा की लाश को देखता रह गया। फिर उसका नाम पुकारकर उससे वह बुरी तरह लिपट-लिपटकर रोने लगा। शामासिंह को यह भी ध्यान नहीं रहा कि पूरब की तरफ सूरज निकलने वाला है। जंगल से अंधेरा अपने शरीर को छोटा करके कहीं भागने की तैयारी में है। जब उसे कुछ होश-सा आया तो तारा की लाश की ओर देखता हुआ बोला... ''तारा, तेरी ही कसम खाकर कहता हूं कि तेरे कत्ल का बदला मैं अकेले गिरधारी से ही नहीं लूंगा। मैं उसे अपने हाथ से मारूंगा भी नहीं... तेरा बदला मैं उसके लड़के बागीसिंह से भी लूंगा, ऐसा बदला कि जिसे सुनकर गिरधारी जैसे दुष्ट खुद ही आत्महत्या कर लें। उन्हें मारूंगा नहीं, बल्कि सारी दुनिया के सामने उन्हें नंगा कर दूंगा.. ऐसा कर दूंगा कि वे दुनिया में को अपनी सूरत भी नहीं दिखा सकें।''

जज्बात के बहाव में शामासिंह अपनी पत्नी की लाश के सामने उसी की कसम खाकर इसी तरह की न जाने कितनी प्रतिज्ञाएं कर रहा था। और आखिर में उसने अपनी पत्नी को जंगल में उसी जगह लकड़ियां इकट्ठी करके जला दिया। जलती चिता पर उसने फिर अपनी प्रतिज्ञा दोहराई।

उधर...बलदेवसिंह!

अपने के पिता के इस तरह भाग जाने के काफी देर बाद तक उसके दिमाग में जज्बातों की आंधी चलती रही। उसने चीख-चीखकर अपने पिता को रोकने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन वे भागते ही चले गए थे। तीसरा कोई घोड़ा उनके पास नहीं था जो वह पीछा कर सकता। अपने पिता को वह गिरधारीसिंह के पीछे इसलिए नहीं जाने देना चाहता था कि कहीं गिरधारीसिंह उसके पिता को मार ही न डाले। इसी तरह के अनेक ख्यालों में खोया हुआ बलदेवसिंह काफी देर तक वहीं खड़ा रहा।

उसके दिमाग में रह-रहकर अपने पिता के आखिरी शब्द गूंज रहे थे- 'अब मैं तुम्हारे पास इस हरामजादे की लाश ही लेकर आऊंगा।'' अपने पिता के इन लफ्जों के बाद उसकी आंखों के सामने दृश्य उभर आया, जो उसने किवाड़ों की दरार से देखा था...अपनी मां की लाचारी... कमीने गिरधारी का वहशीपन... उफ-वह इतनी देर तक कैसे देख सका? यह सोचते-सोचते उसके चेहरे की एक-एक हड्डी चमक उठी... मुट्ठियां खुलने और बंद होने लगीं...भुजाएं फड़कने लगीं... आखें अंगारों तरह सुर्ख हो गईं। दांतों पर दांत जमाकर जैसे वह खुद से ही बोला... 'बलदेवसिंह कैसा क्षत्रिय है तू जो अपनी मां की उस हालत को इतनी देर तक देख सका... लानत है तुझ पर... तुझे भी गिरधारी को ऐसी सजा देनी है कि उसके फरिश्ते भी कांप उठें।''

इसी तरह के उत्तेजनात्मक विचारों में डूबा हुआ वह बैठक की ओर बढ़ा। बैठक में घुसा, मोमबत्ती जलाई। कमरे की हालत को देखता रहा। बैठक की धरती पर मां के कपड़े चारों ओर बिखरे पड़े थे। बिस्तर कुछ ही देर पहले घटी दर्दनाक कहानी को दोहरा रहा था। सारी बैठक का इधर-उधर बिखरा हुआ सामान इस बात की गवाही दे रहा था कि उसकी मां ने उस दरिन्दे से बचने की कितनी कोशिश की होगी लेकिन.. लेकिन.. उसकी मां बच न सकी।

और... बलदेवसिंह उसी बिस्तर से लिपटकर फूट-फूटकर रो पड़ा। न जाने वह भी शामासिंह की तरह कितनी देर तक रोता रहा। होश-सा आने पर उसने अपनी मां के कपड़े समेटे और एक तरफ रखे। इसके बाद वह सोचने लगा कि उसे किस तरह अपना बदला लेना चाहिए? सोचते-सोचते एक तरकीब उसके दिमाग में आई। उसने उसी तरकीब को अंजाम देने की सोची और अपने चेहरे पर बागीसिंह का मेकअप करने लगा। जब वह पूरी तरह बागीसिंह बनकर बैठक से बाहर निकला, उस वक्त भी माहौल पर अंधेरे का ही कब्जा था। बैठक का ताला उसने बाहर से लगाया और पैदल ही तेजी के साथ गिरधारीसिंह के मकान की ओर चल दिया।

गिरधारीसिंह का मकान उसके मकान से कोई ज्यादा दूर नहीं था, लेकिन फिर जब वह वहां पहुंचा तो पूरब तरफ का गगन लाल हो गया था और वह अंधेरे को भाग जाने की चेतावनी दे रहा था। वह चुपचाप चारदीवारी फांदकर गिरधारीसिंह के मकान में कूदा। अब इतना उजाला हो चुका था कि वह बिना किसी चिराग की रोशनी का सहारा लिए अच्छी तरह से सबकुछ देख सकता था।

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