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ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 4 देवकांता संतति भाग 4वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
''उन्हें पता ही कैसे लगेगा मेरी रानी?'' गिरधारीसिंह खूनी स्वर में बोला- ''तू उन्हें इसलिए नहीं बताएगी, क्योंकि इससे शामासिंह तुझे छोड़ देगा और इसके अलावा उन्हें यह खबर देने वाला कोई होगा ही नहीं... इसलिए तुम्हारा चीखना-चिल्लाना सब बेकार है।'' शामासिंह और बलदेवसिंह इसके बाद अपने को होश में नहीं रख सके। कमरे का सामान इधर-उधर उलटा पड़ा था। इस बात से यह साफ जाहिर हो गया था कि गिरधारीसिंह ने तारा से जबरदस्ती की है। गिरधारी के मुंह से ऐसे नीच लफ्ज सुनकर तो दोनों में से कोई भी खुद को काबू में नहीं रख सका और उन्होंने दरवाजे में जोर से धक्का मारा। लेकिन दरवाजा अन्दर से बंद था।
धक्के की आवाज सुनकर गिरधारीसिंह चौंका और उसने एकदम मुड़कर दरवाजे की ओर देखा।
''दरवाजा खोल हरामजादे-हम तेरी बोटी-बोटी नोच डालेंगे।'' बलदेवसिंह गुस्से में चीख पड़ा।
लेकिन-इसके जवाब में अंदर जलने वाली मोमबत्ती बुझ गई। अब उन्हें अन्दर का दीखना भी बंद हो गया। वे दोनों पागलों 'की तरह बैठक का दरवाजा पीट रहे थे... और इधर अंधेरे को चीरकर तारा की एक और जोरदार चीख उनके कानों से टकराई। अब तो वे जैसे पागल हो गए। उन दोनों के ही दिमाग में एकदम विचार आया कि वे मकान की चारदीवारी पार करके अन्दर जाएं और वहां से जाकर वे गिरधारीसिंह को पकड़ें।
दोनों एक साथ ही चारदीवारी की ओर दौड़े...अभी वे चारदीवारी के पास पहुंचे ही थे कि-
एक झटके से बैठक का दरवाजा खुला। दोनों ने एक साथ पलटकर उधर देखा... एक साया किसी इन्सानी जिस्म को लादे घोड़ों की तरफ दौड़ रहा था।'
''खबरदार-ठहर दुष्ट--हम तुझे अभी बताते हैं।'' कहकर बलदेवसिंह म्यान से तलवार ही निकालने में रहा और उधर वह साया उसकी चेतावनी पर कुछ भी ध्यान न देकर घोड़े पर चढ़ गया। उनके देखते-ही-देखते घोड़ा दौड़ पड़ा। शामासिंह भी अपनी पूरी ताकत से घोड़े की ओर दौड़ा और पागल-सा होकर वह चीखा- ''अब मैं तुम्हारे पास इस हरामजादे की लाश ही लेकर आऊंगा बलदेव बेटे।''
और बलदेवसिंह उसे रोकता ही रह गया... किन्तु शामासिंह ने एक न सुनी और अपना घोड़ा गिरधारीसिंह के पीछे भगाता ही ले गया। आगे-आगे गिरधारीसिंह उसकी नग्न पत्नी को कंधे पर डाले घोड़े पर भागा जा रहा था और पीछे था... उबलता हुआ खून लिए-शामासिंह।
जंगल में चारों तरफ अभी तक अंधेरा छाया हुआ था।
शामासिंह अपने आगे दौड़ने वाले घोड़े की टापों की आवाज सुन रहा था और उसे हल्के-से साए के रूप में देख भी रहा था। वह अपने घोड़े को एड़ लगाकर अधिकतम तेजी से दौड़ा रहा था। लेकिन गिरधारीसिंह और उसके बीच का फासला फिर भी कम नहीं हो रहा था। अब तो आगे से तारा की चीखों की आवाज भी आनी बंद हो गई थी... कदाचित् वह बेहोश हो चुकी थी।
कोई तीन कोस तक बराबर इसी तरह पीछा होता रहा।
उसके बाद...अचानक शामासिंह ने देखा कि गिरधारीसिंह ने उसकी पत्नी को भागते हुए घोड़े से दूर फेंक दिया। एक सायत के लिए तो शामासिंह की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे? फिर न जाने किस भावना के आधीन उसने घोड़े की रास खींच ली। घोड़ा अपने दोनों अगले पैरों पर खड़ा होकर जोर से हिनहिनाया और रुक गया। शामासिंह बिजली की-सी गति से घोड़े से कूदा।
आगे वाले घोड़े की टापों की आवाज दूर होती जा रही थी। लेकिन इस वक्त उधर शामासिंह का ध्यान नहीं था।
''तारा.. तारा!'' वह भावुकता में चीखता हुआ अपनी पत्नी की ओर दौड़ा। वह जंगल की जमीन पर पड़े उसके जिस्म के पास पहुंचा और पागलों की भांति रह-रहकर उसका नाम लेता हुआ चीखता रहा और अंधेरे के कारण उसके साए जैसे दीखने वाले शरीर को टटोलता रहा। जब उसे कुछ होश-सा आया तो उसने अपने बटुए से चकमक और मोमबत्ती निकाली। मोमबत्ती की रोशनी में उसने जो कुछ देखा... उसे देखकर वह चीख पड़ा।
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