लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 4

देवकांता संतति भाग 4

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2055
आईएसबीएन :0000000

Like this Hindi book 0

चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''माफ करना, पिताजी... आप नहीं समझ सके... लेकिन मैं बखूबी समझता हूं। ये भी साफ जाहिर है कि दलीपसिंह पिशाच को ही सबसे बड़ा मानते हैं, तभी तो उन्होंने रक्तकथा सम्बन्धी सबसे ज्यादा जिम्मेदारी का काम उन्हें सौंपा और आपको आज से पहले ये भी पता नहीं था कि आपके मालिक के पास रक्तकथा भी है। इसका सीधा मतलब ये हुआ कि राजा साहब आपको पिशाच से नीचा समझते हैं, इसका केवल एक ही कारण है और वह यह कि पिशाच राजा साहब पर अपना सिक्का जमाए रखते हैं। सारा काम वह आपसे और गिरधारी चाचा से लेते हैं और राजा साहब से कहते हैं कि वे काम मैंने किए हैं। जबकि हकीकत ये है कि आप दोनों के बिना वह एक पल भी सफल मनोरथ नहीं कर सकते। जब रक्तकथा के मामले में उन अकेले का कोई बस नहीं चला तो पहले मेरी मदद ली। मैं तो खैर इसलिए उनका हुक्म मानता हूं कि वे मुझसे बड़े हैं, आपके दोस्त हैं और मैं उन्हें चाचा भी कहता हूं लेकिन आप उनसे क्यों डरते हैं, इसका सबब मेरी समझ में नहीं आता? जब मुझसे काम नहीं चला तो आपको भी इसी में घसीट लिया और राजा साहब से यहीं कहेंगे कि सारा काम इन्होंने किया है, इसलिए उन्हें राजा साहब की नजरों से गिराने के लिए बहुत जरूरी है कि आप उनका एकाध काम पूरा न करें।'' कुछ देर तक बलदेवसिंह अपने पिता को इसी तरह की उल्टी-सीधी बातों की पट्टी पढ़ाता रहा।

हालांकि वह पिशाचनाथ से किसी तरह की नफरत नहीं करता था, मगर इस समय केवल यहां से चलने के लिए ही उसके खिलाफ इतना सबकुछ कह गया। आखिर में वह अपने लक्ष्य में सफल भी हो गया। शामासिंह भी उसकी बातों में आकर घर चलने के लिए तैयार हो गया।

बलदेवसिंह और चाहता ही क्या था?

वे दोनों चुपचाप बिना किसी तरह की आवाज करे, पेड़ से नीचे उतर आए। वे पैदल ही चले-आगे जाकर एक छुपे हुए स्थान पर दो घोड़े बंधे हुए थे, उन्होंने घोड़े खोले और उन पर चढ़कर अपने घर की ओर रवाना हो गए। ये घोड़े उन्हीं के थे।

उस वक्त रात का अंधेरा छंटा नहीं था... जब वे, अपने घर के पास पहुंच गए। यह देखकर वे हल्के से चौंक गए कि उनकी बैठक के रोशनदान से हल्की-सी रोशनी झांक रही थी। इस वक्त बैठक में रोशनी होना निश्चय ही उन्हें चौंका देने के काफी था।

''तारा तो इस वक्त घर में अकेली होगी?'' शामासिंह धीरे से बलदेवसिंह के कान में बोला- ''फिर भला बैठक में रोशनी का क्या सबब है?''

''यही तो सोच रहा था।'' बलदेवसिंह भी उसी तरह धीरे से बोला- ''कहीं ऐसा तो नहीं कि शैतानसिंह के ऐयार यहां पहुंच गए हों?''

इस तरह का ख्याल आते ही वे दोनों एकदम सतर्क हो गए और दबे-पांव बैठक के दरवाजे की ओर बढ़ने लगे।

उसी वक्त!

अंदर से तारा के जोर-जोर से चीखने की आवाज आई... 'कमीने.. हरामजादे:.. दुष्ट... दोस्ती के नाम पर कलंक है। तूने मेरी इज्जत लूटी है... मैं... तुझे जिन्दा नहीं छोड़ूंगी। मेरे पति को पता लगेगा तो वे तुझे जान मार डालेंगे.. तू नीच है.. पापी है।'' तारा की इतनी आवाज सुनते ही वे झपटकर दरवाजे पर पहुंचे। उन दोनों ने दरवाजे की दरार से अपनी आखें सटा दीं। अंदर का दृश्य देखते ही वे दोनों भौंचक्के-से रह गए। दोनों की नसों में खून उबल पड़ा।

एक ने अपनी मां के साथ व्यभिचार देखा था और दूसरे ने अपनी पत्नी के साथ। उन्होंने देखा... तारा एकदम नग्र थी। उसके जिस्म पर नाम मात्र को भी कपड़ा नहीं था और वह एक खाट पर लेटी थी। खाट के पास ही खड़ा गिरधारीसिंह अपने कपड़े ठीक कर रहा था। उसने तारा की बात का जवाब यों दिया ... ''तुझ पर बहुत दिनों से तबीयत थी तारा... जब कोई औरत मन को भा जाती है तो किसको होश रहता है कि वह कौन है? बहुत दिनों से इसी मौके की तलाश में था, लेकिन साले शामासिंह और बलदेवसिंह तुझे छोड़कर बाहर जाते ही नहीं थे। आज जब पिशाच ने मेरे सामने उन्हें काम पर भेजा तो सोचा कि आज की रात मेरी रानी घर पर अकेली होगी। इसलिए आज यहां चला आया और अपनी बहुत दिनों की हसरत पूरी कर ली। अब चाहे गाली दे--या कुछ भी कर-मैंने तो अपना काम पूरा कर ही लिया।''

''जब मेरे पति और लड़के को पता लगेगा कुत्ते, तो तेरी बोटी-बोटी नोंच लेंगे।'' कहती हुई तारा ने जोश में बिस्तर से उठना चाहा, लेकिन उठ न सकी और-आ-ऽ-आ-ऽ-करके वहीं पड़ी रह गई। जैसे उससे उठा नहीं जा रहा हो।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book