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देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

और इतनी बात करने के बाद वे पुन: चौक में से गुजरे। देवसिंह अपने दिल की धड़कनों पर काबू पाने का प्रयास करता हुआ देख रहा था। उसी तरह दबे-पांव वे दोनों उस कोठरी की तरफ बढ़े जो हमेशा बन्द रहती थी। उसमें एक मोटा-सा ताला लटक रहा था। द्वारकासिंह ने अपने की जेब से एक ताली निकाली और ताले के छेद में डालकर घुमाई। ताला खोलकर वे अन्दर कोठरी में चले गए और दरवाजा उसी तरह बन्द हो गया। देवसिंह एकदम अपना दरवाजा खोलकर बाहर आया और दबे-पांव चौक में से गुजरकर कोठरी की तरफ बढ़ा। कोठरी के किवाड़ों की झिरी से उसने आंख लगा दी। उसने देखा कि अन्दर किसी मोमबत्ती की रोशनी हो रही है, यह मोमबत्ती द्वारकासिंह के हाथ में है। कोठरी में इस समय उसके माता-पिता के अलावा भी एक आदमी और नजर आ रहा है। देवसिंह उसको पहचानता नहीं। क्योंकि उसका सारा जिस्म काले लिबास और चेहरा नकाब से ढका हुआ है। इससे आगे का जो दृश्य देवसिंह देखता है, उसे देखकर तो वह कांप उठता है। वह देखता है कि उसकी मां यानी धर्मवती दौड़कर उस नकाबपोश के सीने से लग जाती है। उसके पिता यानी द्वारकासिंह पागल-से खड़े हैं। देवसिंह समझ नहीं पाया कि वह सब क्या चक्कर है? उसकी मां किसी पर-पुरुष से इस तरह लिपट रही है और उसके पिता आराम से खड़े हैं, वे किसी तरह का विरोध नहीं कर रहे हैं।

'द्वारकासिंह. तुम देवसिंह का जरा भी ख्याल नहीं रखते हो।'' नकाबपोश बोला- 'हमें लगता है कि तुम अपनी बेवकूफी से सारे किए-धरे पर पानी फिरवा दोगे।''

क्यों मालिक.. मुझसे कोई भूल हो गई क्या?'' द्वारकासिंह ने उस आदमी के सामने गिड़गिड़ाते हुए कहा।

''भूल!'' वह आदमी सख्त स्वर में बोला-''यह कहो कि अगर मैं ठीक समय पर अपना काम न करता तो हम बर्बाद हो जाते। लेकिन अब भी काफी कुछ खेल बिगड़ सकता है।

समझते हो कि वह शिकार खेलने गया था, मगर असलियत ये है कि उसे महात्माजी अपने आश्रम पर ले गए थे।

'क्या कहा आपने?'' एकदम चौंककर धर्मवती बोली- ''महात्माजी!''

''हां!'' उस आदमी ने कहा- ''महात्माजी ने देवसिंह को सारी असलियत बता दी। उन्होंने उसे बता दिया कि राक्षसनाथ का तिलिस्म केवल वही तोड़ सकता है। जबकि उसे यह सब बताने का अभी वक्त नहीं आया था। तुम अच्छी तरह जानते हो कि वह महात्मा हमारे भेद को अच्छी तरह जानता है। अगर उसने सारी बातें देवसिंह को बता दी होतीं.. तो हम बर्बाद हो जाते। महात्मा तो वह रक्तकथा भी देवसिंह को देने वाला था, किन्तु उसी समय मैंने अपनी ऐयारी से महात्मा का पूरा झोला ही उठा दिया।''

''इसका मतलब अब रक्तकथा आपके हाथ में आ गई है।'' द्वारकासिंह खुश होते हुए बोले- ''अब आपका काम बड़ी आसानी से होगा और वह वक्त आया ही चाहता है, जिस सबब से हम आज बीस साल से अंधे बने हुए हैं. अब मैं भी मुक्त हो जाऊंगा।''

''बको मत!'' वह आदमी द्वारकासिंह पर गुर्रा उठा... ''तुम उस समय तक मुक्त नहीं किए जाओगे, जब तक राक्षसनाथ तिलिस्म का खजाना हमें नहीं मिल जाता। तुम्हें काम सौंपा गया है कि तुम उसकी एक-एक हरकत पर नजर रखो.. किन्तु तुम यह भी नहीं कर पाते।''

''मैं तो कोशिश करता हूं लेकिन।''

''लेकिन-वेकिन कुछ नहीं।'' उसने डांटा- ''अगर तुम हमारा काम नहीं करोगे तो...।''

अभी उसका वाक्य पूरा भी नहीं हो पाया था कि अचानक कोठरी के सामने वाली दीवार गड़गड़ाहट के साथ एक तरफ हट गई। एक और आदमी कोठरी में आया। देवसिंह सोचने लगा- 'क्या इस कोठरी में कोई गुप्त रास्ता है?''

कदम-कदम पर देवसिंह का आश्चर्य बढ़ता ही जा रहा था, अभी वह कुछ समझ भी नहीं पाया था कि अचानक चौंक पड़ा। एकाएक ही उसके कंधों पर किसी ने हाथ रखा था, वह चौंककर पलटा तो अपने पीछे खड़े उन्हीं महात्माजी को देखा जो उसे जंगल के बीच बनी उस कुटिया में मिले थे। अभी देवसिंह कुछ बोलना ही चाहता था कि महात्माजी ने अपने होंठों पर उंगली रखकर उसे चुप रहने का इशारा किया। उस रात की चांदनी में अपने पास खड़े हुए महात्माजी उसे बड़े अजीब-से लगे। इनके चक्कर में आकर वह अन्दर होने वाला हाल भी अच्छी तरह नहीं देख पाया था। कोठरी का हाल जानने के लिए वह किवाड़ की दरार से पुन: आंख सटाने ही वाला था कि महात्माजी धीरे से फुसफुसाए-

''उन्हें छोड़ो देव बेटे, हमारे साथ आओ।''

''लेकिन महात्माजी, उनकी बातें...!''

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