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देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

देवसिंह कुछ कहना ही चाहता था कि महात्माजी बात बीच में ही काटकर बोले- ''उनकी बातों की तुम चिन्ता मत करो बेटे, वह सब हम तुम्हें बता देंगे। आओ, हमारे साथ आओ कमरे में। हम जानते हैं कि यह सब देख और सुनकर तुम्हारे ताज्जुब का पारावार नहीं है। हम पहले ही जानते थे कि यह सब देखकर तुम्हारे आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहेगा... और उस समय तक तुम्हारे दिल को तसल्ली नहीं मिलेगी, जब तक कि तुम इसका सबब नहीं जान जाओगे कि कोठरी के अन्दर होने वाली बातों का मतलब क्या है? वे कौन लोग हैं और तुम्हारे माता-पिता आज तक तुमसे और दुनियां वालों से अंधेपन का नाटक क्यों करते रहे? ये सब ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब पाने के लिए तुम बेकरार हो। तुम्हारे दिमाग में जन्मे इन्हीं सब सवालों का जवाब हम तुम्हें तुम्हारे कमरे में चलकर देंगे।'' महात्माजी की ऐसी बातें सुनकर - उतावला-सा हो गया और उनके साथ उसी तरह दबे-पांव वह अपने कमरे की तरफ बढ़ा। कुछ ही देर बाद वे दोनों कमरे में थे। महात्माजी ने कमरे में चिराग जलाने के लिए मना कर दिया था। इस समय वे दोनों कमरे में जंगले के पास बैठे आपस में बात कर रहे थे। आइए, हम भी इनकी बातें सुनें, सम्भवत: हम भी कुछ रहस्य की बातें जान सकें। महात्माजी कह रहे थे-

''देव बेटे, मैं तुम्हें सारी बातें अपनी उसी कुटिया पर बता देना चाहता था, लेकिन दुश्मनों के इन्हीं ऐयारों ने, जो इस समय उस कोठरी के अन्दर हैं, विघ्न डाल दिया और उस समय मैं केवल तुम्हारे कान में यही बता पाया था कि तुम्हारे मां-बाप असल में अंधे नहीं, बल्कि नकली अंधे हैं। मैंने तुमसे ये भी कहा था कि आज की रात ही तुम अपने इस सन्देह की पुष्टि कर सकते हो। वह तुमने किया और सच पाया। मैं जानता था कि यह सब देखकर तुम्हारा ताज्जुब किस हद तक बढ़ जाएगा, उसी को कम करने के लिए मैं यहां हाजिर हुआ। कुटिया पर हुई इनकी ऐयारी से ही मैं समझ गया था कि हमारे दुश्मनों को हमारी भनक पड़ गई है। वहां अपनी चाल खेलकर रक्तकथा और राक्षसनाथ के तिलिस्म की चाबी ले गए। उस समय उन्हीं को हासिल करना मेरा सबसे पहला फर्ज बन गया था। इसीलिए मैंने तुम्हें वहां से यह कहकर टाला कि तुम्हारे माता-पिता की जान खतरे में है, जबकि असल भेद मैं तुम पर अब खोलना चाहता हूं।''

''जल्दी करो महात्माजी... जल्दी करो, मैं इस सबका सबब जानने के लिए बहुत ही बेचैन हूं।'' उत्कण्ठा के साथ देवसिंह बोला। - ''सुनो, सबसे पहली और अहम् बात तो यह है कि तुम द्वारकासिंह और धर्मवती के पुत्र यानी लड़के नहीं, बल्कि शम्भूदास की रियासत चम्पानगर के अकेले वारिस हो।''

''क्या?'' बुरी तरह चौंक पड़ा देवसिंह- ''यह आप क्या कह रहे हैं?''

''हम बिल्कुल सही कह रहे हैं देव बेटे, हमारा यकीन करो।'' महात्माजी ने बताया- ''तुम शम्भूदास और देवकी के रोशन चिराग हो, जो बचपन ही में गुम हो गए थे।' तुम्हें गुम करने वाले ये ही द्वारकासिंह, धर्मवती और दुश्मन के अन्य ऐयार थे। यह हकीकत अभी तक केवल मैं जानता हूं।''

''मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आप ये क्या कह रहे हैं? जरा विस्तार से अपनी बातों को बयान कीजिए।'' देवसिंह ने कहा।

''सुनो।'' महात्माजी ने कहना शुरू किया... तुम जानते हो कि यहां से पश्चिम की तरफ चम्पानगर नाम की एक रियासत है। उसके राजा शम्भूदास थे, परन्तु आज से तीन वर्ष पूर्व महाराज शम्मूदास का देहान्त हो गया। अब चम्पानगर पर उनकी पत्नी राज करती हैं। यह रहस्य बहुत कम लोग जानते हैं कि उनकी शादी के एक वर्ष बाद ही उन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई, परन्तु इसे उनका दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उसी समय उनके दुश्मन के ऐयारों ने ऐसी चाल चली कि उस बच्चे को गायब कर दिया। इस घटना को आज बीस साल हो गए हैं और आज वही बच्चा तुम... यानी देवसिंह बन चुका है। दुश्मन के ऐयारों ने तुम्हें अपने लालच से गायब कर दिया था। और आज वह समय आ गया है, जब वह तुम्हारे अपहरण का लाभ उठाना चाहते हैं।''

ये सारी बातें सुनकर देवसिंह ताज्जुब के साथ चांदनी में चमकते हुए महात्माजी के चेहरे को देखता रह गया- ''किन्तु मुझे आपकी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा है। अगर मैं सचमुच शम्भूदास और देवकी का लड़का हूं तो दुश्मनों ने अपने किस लाभ को देखते हुए आज से बीस साल पहले ही मेरा अपहरण कर लिया था? ऐसा मैं उनका कौन-सा काम निकाल सकता हूं? जिसकी वजह से आज से बीस साल पहले मेरा अपहरण करना पड़ा और अब वह कौन-सा काम है, जो वे मेरे जरिए निकालना चाहते हैं?''

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