लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 3

देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054
आईएसबीएन :0000000

Like this Hindi book 0

चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''आप बिलकुल न घबराएं.. मैं आपके सभी सवालों का जवाब देकर इस कोठरी से बाहर जाऊंगी।'' लड़की ने मोहकता के साथ मुस्कराते हुए कहा- ''किन्तु मेरी पहली शर्त ये है कि आप खाना खा लें.. उसके बाद आराम से यहीं बैठकर बातें होंगी।'' देवसिंह ने बहुत चाहा कि लड़की उसके सवालों का जवाब पहले दे.. मगर देवसिंह को उसकी जिद माननी पड़ी और पहले खाना खाया। यहीं देवसिंह ने बड़ा जबरदस्त धोखा खाया। उसने तो यह कल्पना भी नहीं की थी कि खाने में बेहोशी की दवा होगी। खाना खाते-खाते ही उसका सिर चकराने लगा और वह बेहोश होकर लुढ़क गया। उसके बाद जब उसको दुबारा होश आया तो उसने खुद को यहीं पाया। वह नहीं समझ पा रहा था कि उसके साथ घटी इन विचित्र घटनाओं का सबब क्या है? उसे किसने, क्यों गिरफ्तार किया तथा फिर क्यों छोड़ दिया? कुछ सायत तक वह वहीं खड़ा हुआ इसी बारे में सोचता रहा.. किन्तु जब उसने निरर्थक समझा तो वह अपने घर की तरफ चल दिया। अब पुन: उसके दिमाग में वही बात घूमने लगी थी जो महात्माजी ने उसके कान में कही थी। जब वह अपने घर पहुंचा तो अपने अंधे माता-पिता को अपने इन्तजार में पाया। उसकी मां ने आहट से ही पहचान लिया कि आने वाला उसका पुत्र है। उसकी मां धर्मवती ने आगे हाथ फैलाकर कहा- ''अरे देव.. तू आ गया क्या?''

देवसिंह ने आगे बढ़कर कहा- ''हां मां!'' और धर्मवती ने उसे गले लगा लिया।

''दो दिन से कहाँ था बेटे?'' द्वारकासिंह ने कहा- ''क्या तुझे अपने अंधे माता-पिता का जरा भी ख्याल नहीं है? हम तेरे इंतजार में परेशान हो रहे हैं।''

''मैं शिकार खेलने चला गया था पिताजी।'' देवसिंह ने असली भेद छुपाकर कहा। कुछ देर इसी तरह के गिले-शिकवे होते रहे। अंधी धर्मवती ने खाना बनाया। सब कामों से निपटते-निपटते रात का पहला पहर शुरू हो गया... हम इधर-उधर की बातों में ज्यादा समय न लेकर अब मुख्य घटना की ओर बढ़ते हैं। तीनों अपने-अपने कमरे में सोने के लिए आ चुके हैं, मगर आज हम देवसिंह को अपनी खाट पर नहीं देखते हैँ। आज उसके कमरे में रोशनी भी नहीं है.. क्योंकि अपना चिराग उसने जल्दी ही बुझा दिया है। कमरे का दरवाजा भिड़काया हुआ है। देवसिंह को हम दरवाजे के पास ही बैठा देखते हैं.. और किवाड़ों के बीच की एक झिरी में से बाहर चौक में झांक रहा है। हालांकि मकान के चौक में सन्नाटा हा, किन्तु देवसिंह की यह स्थिति इस बात की गवाही है कि आज उसे किसी खास घटना के होने का इन्तजार है। उसके चेहरे पर छाए भाव बता रहे हैं किं वह किसी तरद्दुद में है। किन्तु वह तरद्दुद किस तरह का है.. यह अभी हमारी समझ में नही आ रहा। परन्तु उसकी हरकत और चेहरे पर के भाव इस बात के स्पष्ट द्योतक हैं कि उसे किसी घटना का इन्तजार है। इसी तरह बैठे-बैठे रात का दूसरा पहर हो जाता है।

एकाएक वह किसी तरह के खटके की आवाज से चौंक पड़ता है। वह कान लगाकर सुनने की कोशिश करता है, किन्तु फिर किसी तरह की आवाज उसके कानों में नहीं आती। वह ध्यान से चौक में छिटकी हुई चांदनी को देखने लगता है। कुछ समय बाद वह दो सायों को चौक में देखता है। यह देखकर उसके मन में बुरी तरह खलबली मच जाती है कि ये दोनों साए अन्य किसी के नहीं, बल्कि उसके माता-पिता के हैं। द्वारकासिंह और धर्मवती दोनों ही दबे-पांव देवसिंह के कमरे की खुली खिड़की की तरफ बढ़ रहे हैं। दिल में अजीब-सी हलचल लिये देवसिंह उन्हें देखता रहता है। जिस की तरफ द्वारकासिंह और धर्मवती बढ़ रहे हैं.. उसी खिड़की के पास कमरे के अन्दर देवसिंह की खाट बिछी हुई है। चन्द्रमा की चांदनी उस खिड़की से होकर खाट पर पड़ रही है। खाट पर तकिए रखकर देवसिंह ने ऊपर से कम्बल इस तरह ढक दिया है, मानो वह सो रहा हो। किसी तरह की आहट उत्पन्न न हो.. इस बात का पूरा ध्यान रखते हुए द्वारकासिंह और धर्मवती उस खिड़की के पास पहुंच गए। खिड़की से उन्होंने देवसिंह के बिस्तर पर झांक्रा और फिर द्वारकासिंह फुसफुसाकर धर्मवती से बोले- ''सो गया है।''

'इसका मतलब महात्मा ठीक ही कहते थे।' देवसिंह मन-ही-मन बुदबुदाया- 'ये दोनों अंधे नहीं हैं। तो.. तो फिर ये अंधे होने का ढोंग क्यों करते हैं? निश्चय ही इसके पीछे कोई गहन भेद है। लेकिन क्या..... वह भेद क्या हो सकता है?' देवसिंह के दिमाग में इसी तरह के विचारों की उथल-पुथल हो रही थी। महात्माजी ने उसके कान में केवल यही बताया था कि तुम्हारे माता-पिता अंधे नहीं हैं, बल्कि अंधे होने का नाटक करते हैं। उसने महात्माजी से इसका सबब नहीं पूछा और यही बात उसे झुंझलाए दे रही थी। खैर.. उसके दिमाग में चाहे जैसे ही विचार घूम रहे हों, मगर आंखें और कान हर सायत द्वारकासिंह और धर्मवती की हरकतों और बातों पर ही केन्द्रित थे। द्वारकासिंह के बाद धर्मवती ने भी उसी तरह फुसफुसाकर कहा था- ''चलो।''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book