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देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

ग्यारहवाँ बयान


अब हम अपने इस नये बयान में पाठकों को देवसिंह से मिलाते हैं। हमें भली प्रकार याद रखना चाहिए कि हमारा विजय ही पूर्वजन्म का देवसिंह हैं। भगवान ने उसे जो एक विचित्र कला दी है, उसके बारे में हमारे पाठक इस भाग के पहले बयान में ही पढ़ आए हैं। इसी भाग के पांचवें बयान में आप देवसिंह और उसके दोस्त अग्निदत्त के साथ घटी वह अजीबो-गरीब घटनाएं पढ़ आए हैं। हम अच्छी तरह जानते हैं कि अभी तक हमारे पाठक कुछ विशेष घटनाओं का मतलब नहीं समझ पाए हैं.. किन्तु हमारे पाठकों को यह समझकर रखना चाहिए कि अभी तक हम संतति में जो भी बयान लिख आए हैं वह, यहां तक कि एक-एक पंक्ति का संबंध मुख्य कथानक से है। यह आप उसी अनुपात में समझते जाएंगे, ज्यों-ज्यों आप आगे बढ़ते जाएंगे। खैर.. आज हमने आपको देवसिंह का हाल बताने के लिए कसम उठाई है। पाठकों को यह भी अच्छी तरह याद होगा कि देवसिंह को उसके दोस्त अग्निदत्त ने, जो वास्तव में चम्पानगर की रानी देवकी का ऐयार था, ने गिरफ्तार कर लिया था। छठे बयान में होने वाली अग्निदत्त और देवकी की बातों को भी आप पढ़ आए हैं। वहीं, राजमहल में बूढ़े महात्मा भी नजर आते हैं। खैर.. सब तरद्दुदों से ध्यान हटाकर अब हम केवल देवसिंह का हाल देखते हैं। वो देखो, देवसिंह जंगल में पड़ा है.. वह धीरे-धीरे कराह रहा है, कदाचित वह अब तक बेहोश था और अब उसकी चेतना वापस लौट रही है। हम नहीं कह सकते कि वह देवकी की कैद से यहां कैसे आ गया? यह भेद की बात है, किसी उपयुक्त स्थान पर आगे चलकर कहीं लिखेंगे। अब तो केवल इतना ही लिखते हैं कि जैसे ही देवसिंह का दिमाग कुछ सोचने-समझने की स्थिति में आया.. वह उठकर बैठ गया और ध्यान से अपने चारों ओर देखने लगा। यह समय संध्या का समय था। हल्की-सी लालिमा लिये जंगल में सूर्य की अन्तिम रोशनी हो रही थी। देवसिंह पहचान गया कि वह घर के पास वाले जंगल में ही है। परन्तु उसी समय उसके दिमाग में विचार उभरा कि वह यहां कैसे आ गया? अपनी बेहोशी से पहले की सारी घटनाएं उसकी आंखों के समक्ष घूम गईं। वह महात्माजी का मिलना इत्यादि। हम वह सबकुछ पहले लिख आए हैं। अत: दोहराना पाठकों का अमूल्य समय नष्ट करना है। हम यहां केवल वह लिखते हैं जो कहीं लिखा नहीं गया है! पाठक तो अच्छी तरह जानते हैं कि देवसिंह को अग्निदत्त ने ही कैद किया था. मगर देवसिंह नहीं जानता कि उसे बेहोश करने वाला कौन था? यह उसे क्यों पता नहीं लग सका, यह भेद आगे की कहानी पढ़ने से ही हमारे पाठक समझ सकेंगे। यह उस समय की बात है, जब देवसिंह और अग्निदत्त महात्मा के पास से लौट रहे थे। महात्माजी के आश्रम में हुई अजीबो-गरीब घटनाएं देवसिंह के दिमाग में घूम रही थीं। हालांकि महात्मा की कही हुई सभी बातें उसके लिए गहन आश्चर्य की थीं... मगर उस बात को सोच-सोच कर उसका जिस्म कांप जाता था, जो बात महात्मा ने अग्निदत्त से भी छुपाकर उसके कान में कही थी। वह अपने विचारों में गुम था.. और उसे अपने आसपास की स्थिति का कोई भी आभास नहीं था। चलते-चलते एकाएक न जाने कैसे उसका सिर चकराने लगा और अभी वह कुछ समझ भी नहीं पाया था कि अपनी चेतना गंवाकर धरती पर गिर गया। अपनी चेतना के अन्तिम सायतों में उसने इतना ही सोचा था कि.. उसके दोस्त अग्निदत्त के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा और निश्चय ही यह किसी ऐयार का धोखा है और जिसमें वह फंस गया है। उसके बाद जब उसकी आखें खुलीं तो उसने खुद को एक अजीब-से कैदखाने में कैद पाया। वह एक छोटी-सी कोठरी थी, जो चारों तरफ से बन्द थी, मगर छत में टंगी एक सुन्दर कन्दील की रोशनी हो रही थी। वह कोठरी के एक तरफ घास के ढेर पर पड़ा था और कोठरी में उसके अलावा कोई नहीं था। वह काफी देर तक सोचता रहा कि वह किसकी कैद में है और उसे क्यों कैद किया गया है? कोठरी में उसका दोस्त अग्निदत्त भी नहीं था। अत: वह सोचता रहा कि उसके साथ क्या हआ? अभी वह इन्हीं विचारों में विचर रहा था.. होश में आए हुए उसे अधिक समय नहीं हुआ था कि अचानक कोठरी का दरवाजा खुला और एक सुन्दर, कम उम्र और कमसिन लड़की कोठरी में आई। उसके गोरे-ग़ोरे हाथों में खाने की एक थाली थी। उसे आती देखकर वह घास पर बैठ गया और उससे पूछा- ''आप लोग कौन हैं और मुझे इस तरह कैद करने का सबब क्या है तथा मेरा दोस्त अग्निदत्त कहां है?''

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