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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

लेकिन रंग इत्यादि न मिलने पर मुझे अपने पागल होने का खतरा लग रहा था।

जब मैं किसी प्रकार नहीं माना तो विकास भागकर दूसरे कमरे में से रंग, कूंची और आर्ट पेपर ले आया।

उन्हें देखते ही मुझे ऐसा लगा, जैसे मुझे दुनिया का सबसे नायाब खजाना मिल गया है। मैंने झपटकर विकास से वे सब चीजें छीनी और बाकी ओर से बेखबर होकर मैं आर्ट पेपर पर चित्र बनाने लगा। मुझे ये अहसास था कि वे चारों मुझे चारों ओर से घेरे खड़े हैं। मैं कुछ नहीं भूला था ---- मैं ये भी जानता था कि विजय हूं - किन्तु मेरी कूची किसी सधे हुए चित्रकार की भांति आर्ट पेपर पर खेल रही थी।

मैं नहीं जानता या कि वह कौन-सी शक्ति थी, ज़ो मुझसे आर्ट बनवा रही थी।

इस दिन से पहले मैंने कभी कोई तस्वीर नहीं बनाई थी। यह बात विकास इत्यादि सभी जानते थे, किन्तु वे सभी चमत्कृत-से थे, क्योंकि पेपर पर बहुत साफ तस्वीर बनती जा रही थी। अगर तुम विश्वास करो कि मैं स्वयं आश्चर्यचकित था। मैं कुछ बनाना नहीं चाहता था।

किन्तु!

मेरे मस्तिष्क से नियंत्रण मुक्त मेरे हाथों ने पेपर पर वह खण्डहर बना दिया, जो मैं दो बार स्वप्न में देख चुका था। मैं स्वयं उस समय चौंका, जब मैंने अपने स्वप्न में चमका खण्डहर आर्ट पेपर पर ज्यों-का-त्यों देखा - एक स्थान पर मेरी कूची ने वही बनाया था, जो मैंने स्वप्न में देखा था। वह बुर्ज जो बहुत ही आकर्षक बना था, उस खण्डहर का सबसे ऊंचा बुर्ज था।

चित्र पूरा होते ही मैंने उसके एक कोने पर कूची से छोटे-छोटे अक्षरों में लिख दिया - 'देव।'

कदाचित उसे पढ़कर सब चौंके, विकास ने पूछ ही लिया - ''गुरु जी..। -''हूं।'' मैं किसी महान चित्रकार की भांति अपनी पेंटिंग में कमी खोजते हुए बोला।

''ये देव कौन है?''

'मैं।'' न चाहते हुए भी मैंने कहा। कहते समय मैं सोच रहा था कि मुझे अपना नाम विजय बताना चाहिए - मैं तो विजय हूं - मगर कमाल ये था कि यह सब चाहते हुए भी मैं स्वयं को देव ही कह रहा था- ''तुम तो बिल्कुल मूर्ख हो विकास - क्या तुम नहीं जानते कि चित्र के इस तरफ हमेशा चित्रकार का नाम होता है?'' अजीब थी मेरी हालत, कहना कुछ चाहता था, कह कुछ जाता था। ये भी मुझे मालूम था कि मैं क्या कह रहा हूं - दिमाग की एक नस कहती थी कि मैं जो कुछ कह रहा हूं, ठीक कह रहा हूं, किन्तु दूसरी नस कहती थी - नहीं, मैं गलत कह रहा हूं - मेरा नाम देव नहीं, विजय है, विजय! किन्तु सबकुछ नियंत्रण से बाहर था - मेरे दिमाग में अजीब-सी परेशानी थी।

'लेकिन आपका नाम तो विजय है, गुरु!'' अजीब-सी गुत्थी में उलझे हुए विकास ने कहा।

दिल में आया कि कह दूं - तुम ठीक कहते हो विकास, वास्तव में मेरा नाम विजय है - मैं देव नहीं हूं। यह मैं सोचकर रह गया.. मेरा दिमाग अपनी ही आवाज सुन रहा था, कह रहा था- ''मेरा नाम देव है - मैं चित्रकार हूं।''

उसी समय मैंने महसूस किया!

सभी लोग मेरी बात सुनकर बुरी तरह घबरा गए हैं। मैं सोच रहा था कि मैं ये कहकर कि मैं विजय हूं अपनी तरफ से उनकी चिन्ता समाप्त कर दूं, मैं जानता था कि वे सब मुझसे प्यार करते हैं और मेरी इस अवस्था पर बेहद चिन्तित हैं।

किन्तु लाख कोशिश के बावजूद भी मैं वह न कर सका जो सोच रहा था।

मैं पुन: खण्डहर की उस तस्वीर को देखने लगा, जो मैंने बनाई थी। सारे खण्डहर पर से फिसलती हुई मेरी दृष्टि बुर्ज के शीर्ष पर स्थिर हो गई। उस समय मुझे जागृत अवस्था में ही ऐसा लगा - चित्र में बने हुए उस बुर्ज के शीर्ष से कांता की आवाज आ रही है -  -'देव. देव.. देब!'

आर्ट पेपर पर बने बुर्ज से पुन: कांता की आवाज निकलकर मेरे मस्तिष्क पर चोट करने लगी। मेरी अवस्था खराब होने लगी। हृदय तड़पने लगा - मेरी प्यारी कांता उस बुर्ज में से मुझे पुकार रही थी। मैं उस पुकार को सहन नहीं कर पाया और जोर से 'चीख पड़ा- ''  -'आया कांता ---- मैं आ रहा हूं - मैं तुम्हें नहीं मरने दूंगा।'

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