ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 1 देवकांता संतति भाग 1वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
प्यारे कि वह तुम्हारा केक खाने लगती है, सब उसे भगाना चाहते हैं--------- वह केक मुंह में दबा लेती है, लेकिन अभी तक खाया नहीं है - वह भाग रही है - हम उसके पीछे भाग रहे हैं - साथ ही चीखते जा रहे हैं --- कांता-कांता- यार दिलजले, उसी समय तुम सबने मुझे जगा दिया - थोड़ी देर और न जगाते तो हम कांता से केक छीन ही लाते - मगर यार...।''
''असली बात को हवा में उड़ाने की कोशिश मत करो गुरु।'' बिकास बोला- ''हमें तुम इतनी आसानी से मूर्ख नहीं बना सकते - तुम नहीं बताओगे तो हम खुद ही पता लगा लेंगे कि कांता कौन है। कल से हम सारे केस छोड़कर इसी केस पर काम करेंगे।''
मैंने उन सबको बहुत समझाने की कोशिश की, किन्तु सब विफल।
उस समय घण्टे ने तीन बार टन.. टन.. टन करके तीन बजने का संदेश दिया था। जब सब पुन: अपने-अपने बिस्तरों पर पहुंच गए तब मैंने सोचा कि यूं ही मुझे एक ख्वाब चमका है, किन्तु स्वप्न के वाद भी मेरे दिमाग में क्योंकि बराबर देव.. देव होती रही - इसलिए मैं थोड़ा परेशान था।
मैं सोच रहा था - स्वप्न में स्वयं को देव क्यों समझने लगा था?
सोचते-सोचते जब दिमाग थक गया तो सिर को एक झटका देकर मैंने स्वयं को विचारों से मुक्त किया और सोने का प्रयास करने लगा। लाइट पहले की भांति ही बुझा दी गई थी। फिर न जाने कब मेरी आंख लग गई।
आंख लगते ही पुन: वही दृश्य मेरे सामने थे।
वही खण्डहर - वही दुश्मन और दोस्त - वही कांता - वही विस्फोट। मैं सबकुछ पहले की भांति देखने लगा। फिर मुझे ऐसा लगा, जैसे बुर्ज के शीर्ष पर से मुझे कांता पुकार रही है- 'देव-देव--देव!'
और - इस बार मुझे पुन: उसी प्रकार, झंझोड़कर उठाया गया। पहले की भांति ही सब मुझ पर झुके हुए थे - इस वार सबकी आंखों में पहले से भी अधिक आश्चर्य के भाव थे। मैंने स्वयं महसूस किया - इस बार भी मैं कांता.. कांता चीखता हुआ जागा हूं।
''गुरु, बात क्या है?'' विकास इस बार बहुत गम्भीर था- ''आप क्यों कांता-कांता चीखते हैं?''
''विकास।'' मैं पहले की भांति चीखा- ''कूची, रंग और एक आर्ट पेपर लाओ।''
'क्या?'' चकराया विकास।
''जल्दी करो, जल्दी।'' मैं दीवाना-सा होकर चीखा- ''मैं सबकुछ भूल जाऊंगा - मैं अपने सपने को आर्ट पेपर पर उतारना चाहता हूं - न जाने क्यों मेरे हाथ मचल रहे हैं ------ विकास, विकास मेरा दिल कह रहा है कि मैं एक आर्टिस्ट हूं - मेरा दिल तड़प रहा है। मुझे कूची दो - रंग -एक आर्ट पेपर, आर्ट बनाने के लिए मेरा दिल मचल रहा है - मैं पागल हो जाऊंगा - मैं पागल हो जाऊंगा - जल्दी से रंग लाओ, कूंची - पेपर - मैं चित्रकार हूं - चित्र बनाऊंगा।'' मैं पागलों की भांति चीखता जा रहा था। अजीब-सी हालत थी मेरी - मुझे यह भी मालूम था कि मैं क्या कह रहा हूं - यह भी जानता था कि सुनने वाले विकास, रैना, ब्लैक ब्वाय और रघुनाथ हैं - मैं उस समय यह भी समझ रहा था कि मैं विजय हूं - लेकिन----लेकिन न जाने क्यों मुझे ऐसा भी लग रहा था कि मेरा नाम देव है - देबसिंह है। मैं एक बहुत बड़ा चित्रकार हूं - मैं महसूस कर रहा था कि मैं बहुत अच्छे-अच्छे चित्र बनाता हूं। ये मुझे मालूम था कि मैं रंग-कूची इत्यादि मांग रहा था----दिल मैं ये भी सोच रहा था कि मैं तो विजय हूं - जासूस हूं चित्रकार नर्ही - मैं चीखता हुआ यह भी सोच रहा था कि ----- मैं चीख रहा हूं - न चीखूं -कूंची इत्यादि न मांगूं - किन्तु फिर भी मैं अपने नियंत्रण में नहीं था। दिमाग सोच रहा था कि मैं वह न करूं जो कह रहा हूं - किन्तु लाख चेष्टाओं के बावजूद भी खुद को रोक नहीं पा रहा था। मैं कहता जा रहा था। न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि मैं एक चित्रकार हूं - मेरी अंगुलियां चित्र बनाने हेतु तड़प रही हैं। मैं तड़प रहा हूं - वास्तव में मुझे ऐसा लग रहा था कि अगर मैंने चित्र नहीं बनाया तो मैं मर जाऊंगा।
बड़ी विचित्र-सी हालत थी मेरी।
मैं देख रहा था कि विकास इत्यादि मेरी बातें सुनकर घबराए-से हैं। मैं चाह रहा था कि उन्हें घबराने न दूँ - किन्तु जो सोच रहा था, वह कर नहीं पा रहा था - यह मुझे भी मालूम था कि मैं चीख-चीखकर कूंची और रंग इत्यादि मांग रहा हूं।
''गुरु-गुरु!'' बुरी तरह मुझे झंझोड़कर चीखा। विकास ------ 'क्या हो गया है तुम्हें - गुरु सुनो!''
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