ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 1 देवकांता संतति भाग 1वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
आग... आग.. आग...!
सारा खण्डहर आग की लपटों में घिरता जा रहा है..... धुआं... धुआं... चारों ओर काला धुआं फैलता जा रहा है।
मेरी आंखों के सामने खण्डहर मलबे का देर बना जा रहा है.. भयानक विस्फोटों के बीच फंसकर खण्डहर तबाह और बरबाद होता जा रहा है। और उस खण्डहर के बीचो-बीच खड़ा बह ऊंचा बुर्ज... मैं देखता हूं..... यह उस खण्डहर का सबसे अधिक ऊंचा बुर्ज है...। मैं सच कह रहा हूं.. ऐसा लगता है, जैसे खण्डहर का ये सबसे ऊंचा बुर्ज आकाश से जाकर मिल गया है..भयानक धमाकों के कारण अब वह बुर्ज हिल भी रहा है...बुरी तरह वह बुर्ज डगमगाने लगता है उसी समय मैं देखता हूं - खण्डहर के चारों ओर पानी है..दूर...बहुत दूर...दूर तक।
मानो---मानो वह खण्डहर सागर के बीच खड़ा हो।
खण्डहर में निरन्तर धमाके हो रहे हैं..मानो बम वर्षा हो रही हो। सारा खण्डहर - रह-रहकर कांप रहा है और...और वह बुर्ज।
मेरे ख्याल से दुनिया का सबसे ऊंचा...।
धमाकों के कारण वह ऐसे डगमगा रहा है, जैसे गन्ने के खेत में एक बेहद लम्बा बांस गाड़ दिया गया हो और तेज तूफान चलने पर वह जोर-जोर से हिल रहा हो। प्रत्येक पल मुझे ऐसा लगता है जैसे थरथराकर वह बुर्ज गिर जाएगा। साथ ही मुझे ऐसा भी लगता है... जैसे इस बुर्ज के गिरते ही मेरे प्राण निकल जाएंगे, जैसे मेरे जिस्म में प्राण सिर्फ उस समय तक हैं... जब तक यह बुर्ज। बुर्ज अगर गिरेगा तो मेरी छाती पर... उसके गिरते ही मैं मर जाऊंगा... और... और वह बुर्ज डगमगा रहा है।
उसी समय धमाकों के शोर को चीरती हुई आवाज मेरे कानों में उतर जाती है।
मुझे लगता है -- जैसे मेरे जिस्म का सारा खून निचोड़ा जा रहा हो। रह-रहकर चीखों की आवाज मेरे कानों में गूंजने लगती है... मैं पागल-सा हो जाता हूं.. उस चीख को मैं सहन नहीं कर पाता। मेरी दृष्टि बुर्ज की जड़ पर स्थिर हो जाती है... उसके बाद... डगमगाते बुर्ज पर मेरी दृष्टि ऊपर तक चली जाती है। ऊपर... सबसे ऊपर... बुर्ज के शीर्ष पर...।
मेरे दिल को तड़पा देने वाली वह चीख उस बुर्ज से निकल रही है। मैं तड़प उठता हूं.. कराह उठता हूं। दीवाना-सा होकर मैं उस बुर्ज को देख रहा हूं.. उसी समय... वो चीख शब्दों का रूप धारण करने लगती है... मुझे लगता है.. जैसे वो चीख कह रही है-
'देव... देव... देव...।'
और...मेरे मस्तिष्क का सन्तुलन एकदम खो जाता है। देव.. देव... की ये आवाज मेरे कानों में उतरती चली जाती है। निरन्तर... सैकडों बार मैं... देव देव की ये आवाज सुनता हूं.. मेरे मस्तिष्क पर ये आवाज चोट करने लगती है... फिर.... फिर मैं ऐसा महसूस करने लगता हूं जैसे मैं देव को जानता हूं.. पहचानता हूं.. मेरे मस्तिष्क की कोई परत जैसे एकदम उलट जाती है। मेरी आंखों के सामने देव का चेहरा घूम उठता है। चीख एकदम तड़प-तड़पकर मुझे पुकार रही है।
तभी...तभी मैं उस आवाज को पहचान लेता हूं.. यह तो कांता की आवाज है... कांता, मेरी प्यारी, मेरी प्राण... मेरी सभी कुछ तो कांता है। मैं देव हूं.. मेरी कांता उस बुर्ज में है... बुर्ज गिरने वाला है... मेरी कांता मुझे पुकार रही है. दम तोड़ने से पहले वह मेरी बांहों में आना चाहती है।
मैं पागल-सा हो जाता हूं ----- मेरी कांता वर्षो सै उस बुर्ज में कैद है ------ वर्षों से वह मुझे पुकार रही है। मेरी दृष्टि उसी बुर्ज पर जमी हुई है। उस बुर्ज के शीर्ष से निकलकर निरन्तर मेरी कांता चीख रही है - 'देव-देव !'
'कान्ता-कान्ता!' मैं अपनी पूरी शक्ति से चीख पड़ता हूं। उस बुर्ज में पुन: आवाज उठती है- 'देव !'
मैं फिर दीवानों की भांति चीख पड़ता हूं- 'कांता -- कांता...!
उस बुर्ज से सिर्फ एक ही आवाज आती है- 'देव !
'कांता-कांता-कांता !' पागलों की तरह मैं चीखता ही चला जाता हूं।
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