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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

सत्रहवाँ बयान

हम नहीं कह सकते कि विजय, गौरवसिंह, वन्दना, विकास, निर्भयसिंह, रघुनाथ, रैना, ब्लैक व्वाय इत्यादि एक साथ किस प्रकार एकत्रित हो जाते हैं। फिलहाल हम केवल वह लिखते हैं, जो इस समय हम देखते हैं और सुनते हैं कि इस समय ये सब लोग साथ हैं और विजय उन्हें कुछ सुना रहा है। यह रहस्य दूसरे भाग में स्पष्ट होगा कि ये सब एक स्थान पर किस प्रकार एकत्रित हो गए और दोनों में से कौन-सा गौरवसिंह असली है। खैर! फिलहाल आप इस थोड़े-से भाग को पढ़कर मुख्य कहानी का अंश जानिए!

''चार दिन पहले ही की तो बात है। विकास का जन्मदिन था। रात के एक बजे तक पार्टी चली थी। मैं अपनी कोठी पर जाने के स्थान पर यहीं सो गया था। तुम कोठी के हॉल कमरे में सो रहे थे। मेरे दाईं तरफ विकास की खाट थी। विकास के समीप ही रैना का बिस्तर। मेरे बाईं ओर रघुनाथ और ब्लैक ब्वाय सोए हुए थे। बन्दर धनुषटंकार अपने शाही राजमहल यानी अपने कमरे में सोया था। जैसा कि विकास के प्रत्येक जन्म-दिवस पर होता था. सिंगही, प्रिंसेज जैक्सन, टुम्बकटू और अलफांसे आते थे, किन्तु इस बार आश्चर्य की बात ये हुई कि अलफांसे जन्म-दिन पर नहीं आया।''

''अलफांसे!'' चौंक पड़ा गौरव-''वही, जो अन्तर्राष्ट्रीय अपराधी है?''

''बिल्कुल वही।'' विजय ने कहा-'लेकिन तुम उसे कैसे जानते हो ?''

'बाद में बताऊंगा,. पहले आप अपनी बात पूरी कीजिए।'' सम्मान के साथ कहा गौरव ने।

''हां तो प्यारे!'' विजय बोला-'तुम कह रहे थे कि अलफांसे नहीं आया.... रैना बहन इत्यादि को इस बात का दुःख था, किन्तु मैं जानता था कि अलफांसे हरफनमौला आदमी है, दुनिया के किसी अन्य देश में टहल रहा होगा अथवा किसी देश की जेल में रोटियां तोड़ रहा होगा। अत: मैं निश्चिंत होकर सो गया। मैं नहीं जानता था कि मुझे सोए हुए कितना समय गुजर गया।'' और विजय आपबीती सुनाने लगा-

मैं बिस्तर पर लेटा था - और मैरी आखों के सामने कुछ दृश्य तैरने लगे। एक लड़की.. बेहद सुन्दर.. वह जुल्मों से घिरी हुई है.. मेरे पास आना चाहती है - लेकिन.. लेकिन बीच में बहुत से लोग हैं। अनेक दुश्मन - अनेक दोस्त.. उसी समय मेरे मस्तिष्क में एक नाम टकराता हे.. कांता!

कांता.. काता.. कांता...!

रह-रहकर यह नाम हथौड़े की भांति मेरे दिमाग पर चोट करने लगता है।

मुझे याद आता है.. उस लड़की का नाम कांता है.. कांता...।

मुझे ऐसा लगता है.. जैसे मैं कान्ता को पहचानता हूं. जैसे मैंने कहीं देखा है.. - मेरे मस्तिष्क की परतें जैसे उलटने लगती हैं। मुझे लगता है, जैसे मैं देख रहा हूं. कांता मेरे पास आना चाहती है.. मगर कुछ लोग उसे रोक रहे हें... वे... वे सैकड़ों आदमी हैं.. उन्होंने कान्ता को घेर लिया हे। मेरी हैसियत ऐसी नहीं है.. मैं उस घेरे को तोड़कर कांता तक पहुंच सकूं.. लेकिर कांता बराबर मुझे पुकार रही है.. मैं.. मैं भी उसके लिए दीवाना हो रहा हूं?.. लेकिन उस घेरे से बाहर खड़ा हूं.. फिर... फिर मैं स्वयं को रोक नहीं पाता.. मैं उस घेरे को तोड़ने के लिए आगे बढ़ जाता हूं.... मैं उनसे टकराता हूं.... लेकिन कमजोर हूं.... तभी.. तभी मेरे कुछ सहायक आते हैं। एक भयंकर युद्ध का दृश्य मेरी आखों के समक्ष खिंच जाता है।

फिर!

जैसे एकदम दृश्य पलटा हो।

कांता मेरी बांहों में समाई हुई है। वह खुश है.. मैं भी खुश हूं।

एकदूसरे से लिपटे हुए हम... इस सारी दुनिया में घूम जाते हैं।

इसके बाद.. एकदम जैसे पुन: मेरे दिल में दर्द होने लगता है। मेरी आंखों के सामने एक बहुत बड़ा खण्डहर उभर आया है। मीलों में फैला हुआ वह खण्डहर... टूटी-फूटी दीवारें.. जंगली घास.. लम्बी-लम्बी झाड़ियां.. अनेकों बुर्ज.. खण्डहर की ये बची हुई दीवारें भी जैसे मेरी आंखों के सामने टूट-टूटकर गिरने लगती हैं। मैं देखता हूं.... जैसे मैं खण्डहर के सामने खड़ा हूं..... पूरे खण्डहर में जोरदार विस्फोट हो रहे हैं... शेष दीवारें भी टूट-टूटकर.... बिखर रही हैं।

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