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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

'आपको ही मुक्त कराने के चक्कर में था।'' महादेव ने उसके साथ-साथ ही चलते हुए कहा-''अगर मुझे पता होता कि मेरी लड़की कलावती जवान होकर इतनी बद्कार निकलेगी तो सच कहते हैं महारानी, हम उसका पैदा होते ही गला दबा देते। हमने अपनी सिफारिश से उसे आपकी सेवा मैं रखा - उसे आपकी खास सखी बनाया, किन्तु वह ऐसी बद्कार निकली कि आपके ही खिलाफ षड्यंत्र रचकर स्वयं हमारी बेनजूर बन बैठी, आपको कैद कर लिया। लेकिन मैं आपका नमकहलाल हूं महारानी - मैं कसम खाकर कहता हूं कि मैं अपने हाथ से इस दुष्टा लड़की का जीवन-चक्र समाप्त करूंगा और आपको वही सम्मान पुन: दूंगा।''

''छोड़ो महादेवसिंह - कलावती को ही खुश रहने दो।'' वन्दना को कुछ-न-कुछ कहना था अतः यही कह दिया।

''मैं आपके दयालु स्वभाव से बहुत अच्छी तरह परिचित हूं महारानी।'' महादेवसिंह बोला-''आप बड़े-से-बड़े अधर्मी-पापी को क्षमादान दे देती हैं। लेकिन मैं कलावती को जीवित न छोडूंगा-मैंने उसके लिए एक पूरा दल बना रखा है। कल ही मैं उस दुष्टा के महल पर आपके नेतृत्व में हमला करूंगा। उससे पहले मैं यहां-शहर में सूचना फैला दूंगा कि बेगम बेनजूर दुष्टा है - उससे कोई भी खुश नहीं है। उसने आपकी प्रजा में यही बात घोषित कर रखी है कि आप कहीं बाहर गई हुई हैं और अपने बाद गद्दी का काम उसे सौंप गई हैं, इसीलिए वह दरबार में आपकी प्रतिमा रखती है। उस बाग में, जिसमें से इस समय हम निकलकर आए हैं, उसमें भी आपकी प्रतिमा है। वह आपके सभी मुलाजिमों पर यही प्रदर्शित करती है कि वह आपकी अनुपस्थिति में आपके आदेशों का पालन करके अपना फर्ज पूरा कर रही है। मगर ये असलियत कि उसने आपको कैद कर रखा है, मेरे अतिरिक्त मेरे दल के लोग ही जानते हैं।''

''क्या मतलब?'' वन्दना उसकी चक्करदार बातों में बुरी तरह उलझी हुई थी।

''अभी शायद आपको इस दुष्टा के पूरे पाप-कर्मों के बारे में अच्छी तरह पता नहीं है।'' महादेवसिंह बोला-''हां-आपको पता भी कैसे हो - आपको तो उसने कैद में डाल रखा है। मुझे तो बताते हुए भी शर्म आती है - आखिर कलावती मेरी लड़की ही तो है। ये आप जानती ही हैं कि उसने आपको कैद कर रखा था। बाहर आपकी प्रजा और सिपाहियों इत्यादि में यही प्रचार कर रखा है कि आप किसी आवश्यक काम से बाहर गई हैं। सब यही समझते हैं कि यहां आपका शासन है, लेकिन असलियत हम जानते हैं, उसने आपको कैद कर रखा है और स्वयं शासन करती है। जब यह वास्तविकता सबको पता लगेगी तो सब मिलकर उस दुष्टा का सिर, धड़ से अलग कर देंगे।''

वन्दना समझ नहीं पा रही थी कि वह महादेवसिंह से क्या बात करे। महादेवसिंह जो भी कुछ कह रहा था, उसे कुछ नहीं पता था, परन्तु एक खास वजह से वह महादेवसिंह का विरोध भी नहीं कर रही थी। एकाएक वे गुफा के अन्त में पहुंच गए। उस स्थान पर गुफा बन्द थी, परन्तु सामने वाली दीवार में एक खूंटी गड़ी हुई थी। महादेवसिंह ने खूंटी नीचे को दबाई तो सामने की दीवार में मार्ग बन गया। उस दरवाजे में से दूसरी ओर निकलकर वह रास्ता उसी प्रकार की एक खूंटी को ऊपर करने पर बन्द कर दिया गया।

इस समय वे एक छोटी-सी कोठरी में थे।

महादेवसिंह ने तीन बार ताली बजाई--प्रतिक्रिया यह हुई कि कोठरी की छत में एक मोखला खुला और एक आदमी ने अन्दर झांका। ऊपर से झांकने वाले आदमी के हाथ में भी एक चिराग था, अन्त: वन्दना ने देखा कि उस आदमी के सारे चेहरे पर सिन्दूर लगा हुआ था। उसका पूरा चेहरा किसी बन्दर की भांति लाल हो रहा था। उन्होंने एक लोहे की सीढ़ी लटका दी। महादेवसिंह ने उसे ऊपर चढ़ने का संकेत दिया और कुछ ही देर बाद महादेव के साथ स्वयं वन्दना भी ऊपर पहुंच गई, ऊपर उसने स्वयं को एक वाग में पाया। जिस आदमी ने सीढ़ी लटकाई थी.. उसके पूरे बदन पर सिंदूर पुता हुआ था। उसके शरीर पर कपड़े के नाम पर केवल एक लंगोट था।

वह आदमी वहीं रह गया और महादेवसिंह वन्दना को साथ लेकर आगे बढ़ गया। एक छोटे-से कोने में एक तिमंजिला छोटा-सा मकान बना हुआ था। महादेवसिंह उसे लेकर उसी मकान में चला गया।

उस मकान के अन्दर महादेवसिंह के कम-से-कम बीस आदमी थे।

''आज मैं महारानी की बेगम बेनजूर की कैद से निकाल लाया हूं।'

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