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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

मायादेवी, हमें लगता है कि तुम खुद को ही सबसे बड़ी ऐयार समझती हो। हम तुम्हें बता दें कि यह तुम्हारे दिल की बहुत बड़ी भूल है, बेगम बेनजूर बेशक तुम्हें अव्वल दर्जे की ऐयार मानती है, लेकिन हमारे लिए तुम ऐसी हो जैसे एक भोली-भाली लड़की। बेशक तुमने गुरुवचनसिंह बनकर माधोसिंह को खूबसूरत धोखा दिया है - लेकिन हमारी नजर में यह कोई काम नहीं है। माधोसिंह अभी ऐयारी सीख रहा है, पूरी तरह ऐयार नहीं है। उसे धोखा देना कोई खास कारीगरी का काम नहीं है। अगर उसके स्थान पर कोई चतुर, चालाक और बुद्धिमान ऐयार होता तो उसी समय समझ जाता कि तुम गुरुवचन नहीं, बल्कि कोई ऐयार हो - जब तुमने उसे अर्थात गणेशदत्त को केवलसिंह समझा। गुरुवचनसिंह के सारे ऐयार अच्छी तरह जानते हैं कि गुरुवचनसिंह कभी इस प्रकार की नादानी-भरी भूल नहीं कर सकते। एक बेवकूफी माधोसिंह ने ये की कि तुम्हें बोलने का अवसर दिए बिना ही वह खुद अपने साथ घटित घटनाओं को बताता चला गया।

तुमने मूर्ख को मूर्ख बनाया है, अत: कोई इनाम का काम नहीं किया है। अब कोई खास काम करके दिखाओ तो हम तुम्हारी ऐयारी को मानें लेकिन एक बात के प्रति हम तुम्हें सावधान कर देना चाहते हैं - और वह यह कि तुमने जिस आदमी के रूप में माधोसिंह को धोखा दिया है, यानी गुरुवचनसिंह को तो तुम भी अच्छी तरह जानती होगी। वे हम-तुम जैसे हजारों ऐयारों के गुरु हैं। उनके मुकाबले का ऐयार आज तक कोई देखने में नहीं आया। हम समझते हैं कि गुरुवचनसिंह तुम्हें ऐयारी का जवाब ऐयारी से अवश्य देंगे.. और ये भी तुम्हें मालूम होगा कि गुरुवचनसिंह की ऐयारी में फंसा व्यक्ति प्यास लगने पर भी पानी नहीं मांगता। तुम यहा से बलवंतसिंह को प्राप्त करना चाहती थीं, लेकिन अब देखो यहां तुमने कितना खूबसूरत धोखा खाया। बलवंतसिंह ही तो एक ऐसा आदमी है, जिसे ये पता है कि मुकरन्द कहां है और मैं समझता हूं कि इस समय हर ऐयार मुकरन्द की तलाश में है, क्योंकि जिसे मुकरन्द मिल गया।

अच्छा, अब ऐयारी के किसी भी मोड़ पर अवश्य मिलेंगे।

काला चोर

मायादेवी ने पूरा पत्र पढ़ लिया और फिर कुछ सोचने लगी। कदाचित् वह यह सोचने का प्रयत्न कर रही थी कि आखिर ये काला चोर कौन हो सकता है? यह तो वह नहीं सोच पाई कि ये कौन हो सकता है, अलबत्ता यह अवश्य सोच लिया कि यह जो कोई भी है, शीघ्र ही पुन: मुलाकात होगी, क्योंकि इस पत्र में उसे ऐयारी के लिए खास चुनौती दी गई थी। उसने पत्र को तह करके अपने बटुए में रख लिया। उस कोठरी से कमंद द्वारा बाहर आई और गुड़िया द्वारा पुन: छत पर बना रास्ता बंद कर दिया। अब वह जंगल में से होती हुई भरतपुर की तरफ बढ़ गई। भरतपुर से बाहर ही उसने अपने बटुए की मदद से अपना चेहरा बदला और उसने अपना भेष किसी मर्दाने व्यापारी जैसा बना लिया। इसके बाद वह भरतपुर में दाखिल हो गई। भरतपुर में मुख्य विशाल द्वार पर उसे किसी ने रोकने की कोशिश नहीं की। बस्ती और बाजारों में से गुजरती हुई वह जिस महल में पहुंची, उस समय सूर्यदेव अस्ताचल में डूबते हुए विदाई बिगुल बजा रहे थे। वह महल के द्वार पर पहुंची।

महल के द्वार पर अनेक सिपाही और चोबदार पहरा दे रहे थे।

''महाराज दलीपसिंह तक हमारा पैगाम ले जाओ - कहना कि एक व्यापारी खास शिकायत लेकर हाजिर हुआ है।''

'इस समय महाराज का आम दरबार लगा है।'' एक चोबदार ने कहा-''इस समय कोई रोक-टोक नहीं है। जो शिकायत है, तुम महाराज से कर सकते हो। हमारे साथ आओ।'' इतना कहकर एक चोबदार उसे महल के अन्दर ले गया। कुछ ही देर में मायादेवी दलीपसिंह के दरबार में थी। सबसे ऊंचे सोने से जड़े सिहासनों पर राजा दलीपसिंह बैठे थे। उनके इर्द-गिर्द सम्मानित - सिंहासन पर दलीपसिंह के खास-खास आदमी, जैसे ऐयार, ज्योतिषी और विशेष सलाहकार बैठे हुए थे। जनता नीचे धरती पर बिछे फर्श पर बैठी थी। एक-एक करके सभी दलीपसिंह से अपनी शिकायतें कह रहे थे। मायादेवी भी चुपचाप जहां स्थान मिला, बैठ गई।

तब, जबकि उसका नम्बर आया, उसने सम्मान के साथ कहा--''महाराज मेरी शिकायत तखलिये (अकेले) में कहने योग्य है। फिलहाल मेरी यही विनती है कि जब सब चले जाएं तो मेरी शिकायत पूछी जाए।'' यह कहते हुए उसने एक दृष्टि दलीपसिंह के सबसे समीप वाली कुर्सी पर बैठे ऐयार बलवंतसिंह पर डाली थी।

राजा दलीपसिंह ने उसकी बात स्वीकार कर ली।

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