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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

तेरहवाँ बयान

वह कमसिन, सुन्दर और मासूम औरत, जो अभी-अभी बूढ़े गुरु के मेकअप में थी... और जिसने अभी...अभी नकली दाढ़ी-मूंछ और सिर के सफेद बाल अपने चेहरे से हटाकर हाथ में ले लिये थे - अब वह बेहोश माधोसिंह को लखलखा सुंघाकर होश में लाने की चेष्टा कर रही थी।

माधोसिंह को होश आया तो वह अपने सामने उस औरत को देखकर एकदम उठकर खड़ा हुआ और बोला-''अरे! मायादेवी आप?''

''हां... हम ही हैं मूर्ख।'' मायादेवी नामक वह स्त्री बोली-''तुम क्या खाक ऐयारी करते हो.. मैं ना होती तो तुम आज फंस गए थे।''

''लेकिन आप...!'' माधोसिंह को इस चमत्कार पर गहनतम आश्चर्य हो रहा था।

''हां... मैं गौरवसिंह और वन्दना के गुरु, गुरुवचनसिंह के रूप में यहां थी और मैंने गौरवसिंह बने गणेशदत्त को खूबसूरत धोखा दिया है।'' -''ओह..!'' माधोसिंह समझकर बोला-''आपने तो कमाल कर दिया।''

''यह समय बातों में गंवाने का नहीं है।'' मायादेवी बोली-''मेरी बात कान लगाकर सुनो और तुरन्त ही अमल करो।''

इसके बाद मायादेवी ने माधोसिंह के कान में कुछ कहा। माधोसिंह स्वीकृति के अन्दाज में गरदन हिलाता रहा। हम नहीं कह सकते कि मायादेवी ने उसके कान में क्या कहा क्योंकि हम स्वयं भी नहीं सुन पाए। खैर.. देखा जाएगा। वो.. देखो, मायादेवी की बात सुनकर माधोसिंह जंगल में एक तरफ बढ़ गया है। कदाचित कहीं जा रहा हे।

क्यों पाठको.. क्या राय है? किसके पीछे चलते हो? माधोसिंह के अथवा मायादेवी की कार्यवाही देखना चाहते हो?

हम जानते हैं कि हमारे साथ कुछ मनचले पाठक भी हैं।

हर हालत में वे मायादेवी के पीछे ही जाने का निर्णय लेंगे। वो देखें.. मायादेवी भी एक तरफ को चल दी है। आइए.. इसके पीछे चलकर हम इसकी कार्यवाही देखते हैं। मायादेवी जंगल में बढ़ती जा रही है। उसकी चाल में काफी तेजी है।

उस समय सूर्यदेव आकाश पर काफी ऊपर आ चुके हैं - जब मायादेवी उसी खण्डहर में प्रविष्ट होती है - जिसमें कभी बलवंत को बख्तावरसिंह के लड़के गुलबदनसिंह ने कैद कर रखा था। इस खण्डहर की भौगोलिक स्थिति हम पहले लिख आए हैं। अत: अब व्यर्थ ही उसे दोहराकर हम नीरस बातों में नहीं उलझना चाहते। यहां पर हम केवल इतना लिखेंगे कि मायादेवी कमन्द लगाकर उस कोठरी की छत पर पहुंच गई और उसने भी छत के दाएं कोने में खड़ी लोहे की छोटी-सी गुड़िया को घुमाया।

छत में रास्ता बन गया।

मायादेवी ने नीचे कोठरी में झांककर देखा - किन्तु उसे कुछ भी नजर नहीं आया। रास्ता इतना बड़ा था कि एक बार में केवल एक ही आदमी इसमें से नीचे कूद सकता था। चारों ओर से बन्द उस कोठरी में इस मोखले से दिन के समय भी इतना प्रकाश नहीं पहुंच रहा था कि ऊपर से पूरी कोठरी को भली प्रकार से देखा जा सकता। मायादेवी बेखटके कोठरी में कूद गई।

नीचे पहुंचने के कुछ देर बाद उसकी आंखें कोठरी की स्थिति देखने की अभ्यस्त हो पाईं।

यह देखकर मायादेवी आश्चर्यचकित रह गई कि कोठरी में कोई कैदी तो क्या - प्राणी के नाम पर वहां चिड़िया का बच्चा भी नहीं था। मायादेवी ने घूम-घूमकर सारी कोठरी भली प्रकार से देखी। हां एक तरफ वे जंजीरें तो अवश्य पड़ी थीं, जिनमें बलवंतसिह बंधा होना चाहिए था। मायादेवी उन्हीं जंजीरों को देखती-देखती कुछ सोच रही थी कि - एकाएक मायादेवी की दृष्टि जंजीर के पास पड़े कागज के एक पुर्जे पर पड़ी। उसने आगे बढ़कर वह कागज उठा लिया। कागज तह किया हुआ था। उसने जल्दी से उसकी सारी तहें खोलीं, लिखा था...

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