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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''अभी क्योंकि हमें तुम्हारी वफादारी पर पूरा यकीन नहीं हो पाया है, इसलिए हम तुम्हें बताए देते हैं - अगर तुमने हमसे किसी तरह की धोखेबाजी करने की कोशिश की तो हमसे ज्यादा नुकसान तुम्हें होगा। दलीपसिंह बोला- ''तुम्हारी जानकारी के लिए हम तुम्हें बता दें कि हमने इन दोनों (कंचन और कमला की लाशों की ओर इशारा करके) की हत्या तुमसे ही क्यों करवाई और हमने तुम्हारे हाथ से इनकी हत्या करने के लिए तलवार पर ही जोर क्यों दिया। तुम इनकी हत्या तिलिस्मी खंजर से करना चाहते थे - लेकिन हमने तलवार पर जोर दिया। इसके पीछे हमारा एक खास सबब था।

(पाठक सावधान हो जाएं। छठे भाग में से पूछे गए सवाल का जवाब आपके सामने है।)

''क्या? '' मेघराज ने हल्के-से ही चौंककर सवाल किया।

''हम तुम्हें बता ही चुके हैं कि यह कलमदान तुम्हारी उस वक्त की तस्वीर ले चुका है जब तुम कंचन और कमला की हत्या कर रहे थे। दलीपसिंह ने वताया- 'अगर ये हत्याएं मैं तुम्हें तिलिस्मी खंजर से करने देता तो उसकी चमक इतनी तेज होती कि कलमदान कोई भी तस्वीर नहीं ले पाता। केवल वह चमक ही तस्वीर में आती और मेरे पास तुम्हारे खिलाफ कुछ भी नहीं होता। अब इस कलमदान में इस बात का पूरा सुबूत है कि तुमने अपने हाथों से कंचन और कमला की हत्या की है। इस बात को ध्यान में रखकर ही तुम आगे काम करना - तुम्हारी मदद के लिए मैं पिशाचनाथ को भेज दूंगा। जिस दिन तुम हमारे हाथ के खत बंसीलाल से हासिल करके हमें दे दोगे - उस दिन ये तस्वीर भी हम तुम्हें लौटा देंगे।

''ठीक है।'' मेघराज ने कहा- ''लेकिन अब इन लाशों का क्या किया जाए?

''इस वक्त तो हम दोनों यहां से चले जाते हैं। दलीपसिंह ने कहा- ''सुबह से इनकी तलाश जारी होगी। तुम भी उमादत्त की तरफ से इनकी तलाश में शरीक होगे। तुम यहां से ये लाशें बरामद करा सकते हो। दुनिया वाले केवल यही जानेंगे कि किसी ने इन दोनों की हत्या कर दी है, ये कोई सोच भी नहीं पाएगा कि ये हत्याएं तुमने की हैं। यह भेद सबूत सहित केवल इस कलमदान में हमारे पास है।

इसी तरह की कुछ और बातों के बाद उनकी यह बैठक वर्खास्त हो गई। मैं (बंसीलाल) अपनी जगह पर छुपा हुआ उनकी एक-एक हरकत देख और बातें सुन रहा था। उन्होंने उस कमरे में ऐसे सारे निशान खत्म कर दिए जो उनके यहां मौजूद होने का सुबूत दे सकते। वे साथ-साथ बाहर निकले। मैं उनके पीछे ही था। घाटी के बाहर से दारोगा और फिर दलीपसिंह भी अपने अपने घोड़ों पर सवार होकर अपने-अपने रास्ते पर चले।

अब मुझे फैसला करना था कि अब मुझे किसके पीछे जाना है। यह बात तो अब साफ हो ही चुकी थी कि अब मैं उनके और ज्यादा खत इकट्ठे नहीं कर सकूंगा। उनके ऊपर खतों का भेद खुल गया है और अब वे मेरी जान के ग्राहक हैं। अब तो मेरा उनके सामने जाना भी मौत को दावत देना है। मेघराज और दलीपसिंह ने मिलकर कितना घिनौना पाप किया है - इसका एक और सुबूत वह कलमदान था - जो इस वक्त दलीपसिंह के कब्जे में था। मेरे दिमाग में ख्याल आया कि क्यों न मैं इस कलमदान को भी हासिल कर लूं। इससे मेघराज के सारे सुबूत मेरे पास हो जाएंगे। कलमदान को हासिल करने के ख्याल से ही मैं दारोगा का पीछा छोड़ दलीपसिंह के पीछे लग लिया। कोई तीस सायत मैं चुपचाप दलीपसिंह का पीछा करता रहा।

दारोगा उनसे जुदा होकर अपने रास्ते पर जा ही चुका था।

आप समझ सकते हैं कि मैं केवल एक ऐयार हूं - योद्धा नहीं। आमने सामने लड़कर मैं किसी भी हालत में दलीपसिंह को शिकस्त देने की ताकत नहीं रखता था। मैं उन्हें धोखे में डालकर कलमदान जरूर हासिल कर सकता था। पिछले कितने ही दिनों से मैं चमनगढ़ और दलीप नगर पहुंचने वाले सभी रास्तों से अच्छी तरह वाकिफ हो चुका था। मैं जानता था कि दलीपसिंह जिन-जिन रास्तों से होकर गुजर रहे हैं - वे कहां से किस तरह दलीप नगर पहुंचेंगे।

मैंने रास्ता काटा और छोटे रास्ते से ऐसी जगह पहुंच गया, जहां से दलीपसिंह का गुजरना जरूरी था। उस जगह पर - मैं अंधेरे में जमीन पर इस तरह पड़ गया - मानो कोई लाश पड़ी हो। अपने सारे जिस्म पर मैंने बेहोशी का अर्क छिड़क लिया। खुद मैंने एक ऐसी दवा खा ली थी जिसके सबब से बेहोशी के अर्क का कोई असर न होता था। कदाचित् आप समझ गए होंगे कि मेरा इरादा क्या था।

जो मैंने सोचा था वही हुआ।

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