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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

राजा दलीपसिंह वहां पहुंचे। मुझे पड़ा देखकर वह लाश समझे। घोड़े से उतरकर मेरे करीब आए। मुझ पर झुकते ही वह बेहोश होकर मेरे ऊपर लुढ़क गए। मैं उठा - उनकी तलाशी ली।

कलमदान मुझे आसानी से मिल गया।

कलमदान मैंने अपने बटुए के हवाले किया और दलीपसिंह को उसी हालत में छोडकर मैं वहां से रवाना हो गया! अब मुझे ऐसा लग रहा या कि मेरा काम खत्म हो गया। वे सारे सुबूत मेरे पास थे जो मेघराज के गुनाह साबित कर सकते थे। इससे ज्यादा सुबूत अब न तो मैं इकट्ठे कर सकता था और न ही जरूरत थी। जंगल में एक तरफ को जाता हुआ मैं सोच रहा था -- अब मैं क्या करूं? कहां जाऊं? मैंने ये सारे सुबूत इकट्ठे तो कर लिए--लेकिन इनका करूं क्या -- क्या उमादत्त के मामने ये सारे सुबूत ले जाकर रख दूं? लेकिन मेघराज भी तो मेरा वह भेद खोल देगा। यह तो ठीक है कि अगर मैं ये सारे सबूत उमादत्त के सामने रख दूं तो दारोगा कहीं का नहीं रहेगा -- लेकिन साथ ही अगर मेरा भेद खोल दिया तो मेरे पास भी आत्महत्या के अलावा दूसरा कोई चारा न होगा मेरे दिमाग में यह विचार भी आया कि अगर मैं मेघराज का यह भेद उमादत्त पर खोल दूं तो उसे तो फिर भी दलीपसिंह के यहां शरण मिल जाएगा, लेकिन अगर मेरा भेद खुल गया तो मैं कहीं का नहीं रहूंगा। ये सब बातें सोचकर मुझे अहसास हुआ कि मैं अब भी मेघराज से दबा हुआ हूं।

अंत में मैं इसी नतीजे पर पहुंचा कि इन सुबूतों को उमादत्त तक पहुंचाकर मैं दारोगा का कम और अपना नुकसान ज्यादा करूंगा।

इसके आगे मेरे सामने सवाल था कि अब मैं करू क्या?

बहुत से विचार मेरे दिमाग में घूमते रहे और अंत में मैंने निश्चय किया कि अभी मैं दलीपसिंह और मेघराज की नजरों से छुपकर काम करता रहूं और इस बात का पता रखूं कि वे कल क्या कर रहे हैं। मैंने सोचा कि कुछ भी हो जाए, दारोगा को अपने इरादों में कामयाब नहीं होने देना है। उसे किसी भी तरह मैं चमनगढ़ की गद्दी पर नहीं बैठने दूंगा। अपने मालिक उमादत्त का अहित न होने दूंगा।

बस - मैंने अपनी बाकी की जिंदगी का लक्ष्य यही बना लिया।

मैं जानता था कि दलीपसिंह और मेघराज से ताल्लुक रखने वाले ऐयार और मुलाजिम आज ही की रात से पागल कुत्तों की तरह मुझे दूंढ़ना शुरू कर देंगे। अत: अब अपने घर पहुंचने की तो कोई तुक नहीं थी। मेरी पत्नी तो है ही नहीं - केवल एक लड़का रामरतन और बहू चंद्रप्रभा है। प्रभा बख्तावरसिंह की लड़की है। उनकी शादी को अभी ज्यादा वक्त नहीं गुजरा है। और यह भी अच्छा ही है कि वे दोनों यहां से बहुत दूर आजकल घूमने गए हैं। अगर वे घर पर होते तो मुझे उनकी चिंता होती - क्योंकि मुझे पकड़ने के लिए वे मेरे बेटे और बहू को भी पकड़ सकते थे।

मतलब ये कि उस रात मैं घर नहीं गया और जंगल में ही एक मुनासिब जगह ढूंढ़कर रहने लगा।

अगले दिन सुबह तक मुझे वह जगह मिली और मैं वहीं रहने लगा। कुछ देर मैंने वहां आराम किया -- दोपहर बाद जब सोकर उठा तो मैंने सोचा कि क्यों न मैं दारोगा के खिलाफ सारे सुबूतों को एक जगह रख दूं - तथा अपने सारे हालात भी लिख दूं-- ताकि अगर ये सबूत मेरी मौत के बाद किसी के हाथ लगें तो दारोगा वाली करतूत खुल सके। वहां बैठकर मैंने वे सारे खत और अपने लिखे हुए ये कागज - वह जनाना लिबास- जिसे पहनकर दारोगा मेघराज अपनी बहन कंचन को बहका लाया था - इत्यादि सब उस कलमदान में रख दिए। अब वह कलमदान एक तरह से दारोगा की मौत हो गया था। यहां रहकर मैंने जो-जो काम किए, अब वे सब मैं दूसरे कागजों पर लिख रहा हूं।

''बस! '' रामरतन बोला- ''यह कागज मेरे पिता ने यहीं खत्म कर दिया था।

''क्या तुम्हें उस कलमदान में से वे कागज भी मिले जिनमें उसने अपनी आगे की कार्यवाही लिखी है? '' पिशाच ने बख्तावर की आवाज में सवाल किया।

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