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ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 7

देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

खैर, इस सवाल का जवाब मुझे नहीं मिला।

कमरे में कोई दूसरी चीज न पाकर मैं पेंटिंग को छेड़ने लगा, न जाने कैसे पेंटिंग को छेड़ते ही कमरे में एक बड़ा प्यारा-सा लगने वाला संगीत गूंज उठा। इसके बाद उसमें से आवाज निकली - मेरा कान मरोड़ो.. कान।

(पाठको, इसके बाद माइक ने थोड़ा-सा हाल वैसा ही लिखा था जैसा कि बांड के साथ गुजरा और जिसे आप दूसरे भाग के पहले बयान में पढ़ आए हैं। फर्क इतना है कि बांड के किस्से में तस्वीर विजय की थी और माइक के किस्से में अलफांसे की। कान मरोड़ने से कोठरी में एक रास्ता खुला, यहां तक माइक और बांड का हाल मिलता है, सो उसे यहां लिखना बेकार है। लेकिन माइक के सामने जो दरवाजा आया और जहां वह निकला, ये हाल बांड से नहीं मिलता। सो हम लिखे देते हैं।)

जब मैं कमरे से बाहर निकला तो मैंने खुद को एक लम्बी-सी गुफा में पाया। यह गुफा मेरे कमरे के दायें-बायें दोनों तरफ को चली गई थी गुफा इतनी चौड़ी थी कि पांच आदमी एक कतार में बड़े आराम से चल सकते थे। मुझे क्या पता था कि कौन-सा रास्ता कहां जाता है? मैं यूं ही एक तरफ को बढ़ गया। कई मोड़ घूमने के बाद गुफा में एक जगह मैने गुफा के बीचोबीच छत पर लटका एक बर्छा देखा। चमचमाता हुआ वह बर्छा गुफा की छत से इस तरह लटकाया गया है कि गुफा से गुजरने वाले किसी भी आदमी की नजर से वह बच नहीं सकता। मैंने भी ठहरकर उसे बहुत गौर से देखा। चमचमाते बर्छे पर नक्काशी का सुन्दर काम हो रहा था। मैं बर्छे को बिना छुए नक्काशी का काम बड़े ध्यान से देखने लगा, मैंने महसूस किया कि नक्काशी द्वारा बर्छे पर हिन्दी के कुछ हर्फ खुदे हैं। मैंने उनको समझने की कोशिश की, मगर समझ न सका। जब काफी दिमाग घुमाने के बावजूद भी वे मेरी समझ में नहीं आए तो उन्हें बेकार समझकर आगे बढ़ गया। तीन मोड़ बाद मैंने देखा कि सुरंग का रास्ता घेरे वहां एक हाथी की लाश पड़ी है। हाथी की वह लाश गुफा में इस तरह पड़ी है कि कोई भी आदमी उसके ऊपर से गुजरे बिना सुरंग में आगे नहीं जा सकता। उस लाश को देखकर पहले मैं चकराया और उस लाश को गौर से देखने लगा। कोई एक घंटे तक मैं उस मृत हाथी को देखता रहा।

वह किसी बहुत ही बूढ़े हाथी की लाश थी। यह समझ में नहीं आता कि वह इस गुफा में मर कैसे गया? आखिर जब कुछ भी समझ में नहीं आया तो मैंने हाथी की लाश के ऊपर से ही गुजरकर गुफा में आगे बढ़ने की सोची! और जैसे मेरा उस लाश पर चढ़ना ही गजब हो गया। तुमने मेरा हाल तो देख ही लिया है। मैं किस तरह बूढ़ा हो गया हूं? सारी खाल झुलस गई है, बूढ़ों की खाल की तरह झुर्रियां पड़ गई हैं। ज्यादा क्या लिखूं तुमने मेरे जिस्म का हाल देख तो लिया ही है।

हां, ये बताना जरूरी है कि मेरा ये हाल उस हाथी की लाश पर चढ़ते ही हुआ। न जाने कैसे सारी खाल झुलस गई और मैं बूढ़ा हो गया। अपनी यह हालत देखकर मुझ पर क्या गुजरी होगी - इसका तुम अंदाजा लगा सकते हो। सच, मैं खून के आंसू रो पड़ा। ज्यादा लिखने का वक्त नहीं है वरना उस वक्त के अपने दिल के सारे हालात यहां लिखता। बस जल्दी में इतना ही लिख पा रहा हूं कि जब मैं हाथी की लाश के उस पार निकला, तब तक जिस्मानी ढंग से पूरा बूढ़ा हो चुका था।

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