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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''अब चटनी का न जाने कहां चला गया?'' बागारोफ खुद-ब-खुद ही झुंझलाकर बुदबुदाया। उसकी बात का जवाब तीनों में से किसी ने कुछ नहीं दिया। देते भी क्या? किसी के पास इस सवाल का जवाब भी तो नहीं था। धीरे-धीरे वक्त गुजरता चला गया। कोठरी के दरवाजे पर टिकी आखें थक गईं, सबकी बेचैनी बढ़ने लगी। ये बात दूसरी है कि बागारोफ अपनी बेचैनी बुदबुदाहट में जाहिर कर रहा था। बाकी तीनों उसे अपने दिलों में ही छुपाए हुए थे। एक घंटे बाद अचानक माइक दरवाजे पर ही नजर आया। देखते ही चारों की आखें चमक उठीं। बागारोफ चीखा-''अबे कहां चला गया था शुतुरमुर्ग की औलाद?''

''मेरा यहां ज्यादा देर खड़ा रहना खतरे से खाली नहीं है चचा!'' ऊपर से माइक भी चिल्लाकर बोला-''इस कागज में मैं जो कुछ लिख सका हूं लिख दिया। यहां से निकलने में मेरे सामने एक ऐसी अड़चन है, जिसका मैं हल न निकाल पाया, यह अड़चन मैंने इस कागज में लिख दी है। अगर तुममें से उसे कोई हल कर सके तो मुमकिन है कि मेरी जान बच जाए। वर्ना मैं अब जिंदा न बनूंगा।'' -''अबे तो उस कागज को नीचे डाल - हम देखेंगे वह क्या अड़चन है?''

माइक ने वह कागज बाग की तरफ फेंक दिया। अभी वे तीनों कागज की तरफ लपकना ही चाहते थे कि उन्होंने देखा - कोठरी के दरवाजे पर खड़े माइक के पीछे से दो आदमी उस पर झपटे। वे दोनों आदमी शक्ल से बड़े भयानक थे। उनके हाथों में खंजर था। जैसे ही इनकी नजर उन पर पड़ी। सबसे पहले हुचांग चीख पड़ा-''बचो माइक!'

हालांकि माइक बिजली की-सी तीव्र गति से ही पलटा था!

मगर-दोनों के खंजर माइक की लहूलुहान पीठ में धंस गए। सूर्य की रोशनी सीधी उसी जगह पर पड़ रही थी जहां माइक था। एक ही पल पूर्व खंजर बुरी तरह चमके थे। पलक झपकते ही दोनों खंजरों के सारे फल माइक की पीठ में धंस गए!

माइक के कंठ से निकली एक तेज चीख सुनकर चारों दहलकर रह गए। इस चीख के साथ ही माइक गिरा और लुढ़क कर दरवाजे से बाग में गिरने वाला ही था किं दोनों खंजर वालों में से एक ने उसका हाथ पकड़ लिया। उसने माइक को ऊपर खींच लिया।

बागारोफ के मुंह से गालियों का तूफान उमड़कर रह गया!

खंजर वाले दोनों आदमियों में से एक तो माइक को खींच रहा था - दूसरा इन चारों की तरफ देख रहा था। उन दोनों के ही जिस्मों पर काले कपड़े थे। उनकी शक्ल ही इतनी भयानक थी कि शक्ल से ही वे जल्लाद लगते थे। इन चारों की तरफ देखकर वह माइक के खून से सना चाकू घुमा रहा था और इस तरह का इशारा कर रहा था - मानो तुम भी आ जाओ, तुम्हारा भी यही हाल होगा।

''अबे चाकू क्या दिखाता है?'' चीखा वागारोफ-''नीचे आ तो वताऊं।''

मगर - उसने बागारोफ की पूरी बात सुनने का कष्ट नहीं किया।

वह दरवाजे से उठा, कोठरी के अन्दर समाकर उनकी आंखों से ओझल हो गया। पहला आदमी माइक को खींचता हुआ पहले ही गायब हो चुका था। अव वे चारों फिर ठगे-से खड़े रह गए। कोठरी का सूना दरवाजा पुन: खाली था। एक बार को तो उन चारों की ही आंखों में आंसू उमड़ आए। कैसे लाचार थे वे? आंखों के सामने माइक मरने जैसी हालत में था और वे कुछ नहीं कर सके। क्या बाग किसी आदमी को मजबूर करने को बनाया गया था?

चारों जांबाजों की जांबाजी धरी रह गई। माइक की मदद कोई न कर सका।

मगर, वे वहां कब तक खड़े रहते? खड़े रहने से फायदा भी क्या था? लिहाजा चारों उस दीवार की तरफ चले - जिसके ऊपर वे कोठरियां थीं। उस दीवार के नीचे जाकर वे माइक के फेंके हुए कागज को ढूंढ़ने लगे। काफी खोजबीन के बाद हुचांग के हाथ एक झाड़ी में पड़ा कागज लगा। कागज क्या था - कागजों का एक पुलंदा था। सबके मन में यह जिज्ञासा जागी कि इतने सारे कागजों में माइक ने क्या लिखा है। हम जानते हैं कि उन कागजों को पढ़ने के लिए हमारे पाठक भी उतने ही बेचैन हैं जितने कि - बांड, हुचांग, बागारोफ और टुम्बकटू हैं! हम पाठकों को ज्यादा देर अंधेरे में नहीं रखेंगे, लीजिए लिखे देते हैं कि उन कागजों में माइक ने क्या लिखा है।

उन कागजों को लेकर वे चारों उसी दीवार के नीचे आ गए - जिसके नीचे वे पहले बैठे थे। बागारोफ ने कागजों की तह खोली। देखते ही उन सबके दिल धड़क उठे थे - और सभी बागारोफ के बोलने का इंतजार कर रहे थे। बागारोफ ने पढ़ना शुरू किया-

 

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